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मनुष्य की विशिष्टता
हम चार गतियों पर विचार करें । नरक गति का शरीर अधिकांश दुःख का हेतु है । नारक अधिकांश समय दुःख में रहता है । उसके दुःख वेदनीय का उदय होता रहता है। देव का शरीर अधिकांश सुख में रहता है | वह कभी-कभी दुःख वेदनीय का अनुभव करता है । तिर्यंच का शरीर है, उसका भी अधिकांश समय दुःख में ही बीतता है। इन तीनों गतियों में जो प्राणी हैं, उनके मन में यह विचार पैदा ही नहीं होता है कि मुझे अपने जन्म को सफल बनाना है, दुःख रो मुक्त करना है । कारण बहुत स्पष्ट है । नरक योनि में इतना ज्यादा मानसिक तनाव रहता है, कष्ट रहता है कि उसे सोचने का अवसर ही नहीं मिलता । निरंतर प्रताड़ना, वेदना और संवेदना का जीवन जीता है । वह उस कष्ट से इतना अभिभूत हो जाता है कि जन्म को सफल करने की बात सोच ही नहीं पाता । देवता का शरीर सुख में तो रहता है, किन्तु सार्थक नहीं बनता । उसमें भोग-विलास का तनाव निरंतर रहता है। उसे कभी यह सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता कि जन्म को सफल बनाएं, सार्थक करें । भौतिकता का ऐसा वातावरण रहता है कि उससे परे जाने का चिंतन ही प्रज्वलित नहीं होता । जो तिर्यंच हैं, उनमें विवेक नहीं होता, चिंतन का विकास नहीं होता। वे तिर्यंच पंचेन्द्रिय भी होते हैं, फिर भी चिंतन विकसित नहीं होता । अपवाद की बात छोड़ दें। कोई नारक भी ऐसा हो सकता है, जिसके मन में जागृति आ जाए । कोई तिर्यंच भी ऐसा हो सकता है, जिसमें यह चिंतन जाग जाए । पर सामान्यतः उनमें यह विकास नहीं होता । केवल मनुष्य ही ऐसा है, जिसमें चिंतन की क्षमता है जिसका नाड़ी-तंत्र बहुत विकसित है । अन्य किसी भी प्राणी का नाड़ीयंत्र इतना विकसित नहीं होता। मनुष्य का मस्तिष्क भी बहुत विकसित है, स्पाइनल कोड (मेरुदण्ड) भी बहुत विकसित है। इतना विकास किसी अन्य प्राणी में नहीं है । मनुष्य में सोचनेविचारने की क्षमता है । उसमें यह चिंतन पैदा होता है कि मैं अपने जन्म को सफल करूं, दुःख-मुक्त करूं । वह इसके लिए मार्ग भी चुनता है । कुछ मनुष्य ऐसे भी हैं, जो एक आग्रह के साथ जीवन जीते हैं । उनमें चिंतन का विकास नहीं होता।
सफल जीवन के सूत्र
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