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किन्तु हम आहार-संयम पर ही न अटके, इसे आहार-प्रत्याख्यान के स्तर तक लाएं | उससे भी आगे बढ़ें- आज मैं क्रोध नहीं करूंगा, प्रत्याख्यान कर लिया । आज मैं गाली नहीं दूंगा, प्रत्याख्यान कर लिया । आज मैं सहिष्णुता का प्रयोग करूंगा, असहिष्णुता का प्रत्याख्यान कर लिया । किसी के प्रति क्रूर व्यवहार नहीं करूंगा, अभय रहने का प्रयास करूंगा। इस तरह के भावात्मक प्रत्याख्यान के प्रयोग प्रतिदिन हम करते चले जाएं तो अभ्यास करते-करते ऐसी स्थिति में पहुंच जाएंगे कि भाव की दृष्टि से बिल्कुल निर्मल और पवित्र बन जाएंगे।
जीतता है त्याग
प्रतिदिन प्रत्याख्यान करना एक बहुत बड़ी शक्ति को अर्जित करना है । छोड़ने की बात में ही शक्ति निहित है । उत्तराध्ययन सूत्र से जुड़ा हुआ प्रसिद्ध आख्यान है दशार्णभद्र का । भगवान् महावीर का समवसरण । दशार्णभद्र ने सोचा- महावीर पधारे हैं, मैं वंदना करने जाऊं । वह राजा था इसलिए अहं का जाग जाना स्वाभाविक था । उसने सोचा- मैं इस रूप में जाऊं, जैसा आज तक कोई न गया हो । वह पूरी सज्जा और तैयारी के साथ सेना लेकर भगवान् महावीर के पास गया । इन्द्र भी आ रहा था उसी समय भगवान् की वंदना करने के लिए | उसने दशार्णभद्र के इस अहं को पहचाना । कुछ सोचकर इन्द्र ने एक हाथी का निर्माण किया और हाथी पर ही भव्य तालाब, उसमें खिले हुए कमल और कमल की प्रत्येक पंखुड़ी पर नाट्य करती अप्सराएं । सब कुछ इतने चमत्कारिक ढंग से किया कि दशार्णभद्र उस दृश्य को देखकर चकित रह गया । उस वैभव के सामने उसका सारा तामझाम फीका-सा दिखाई देने लगा । उसका अहंकार विगलित हो गया । किन्तु तत्काल एक निर्णय लिया । भगवान के पास आया, विनम्र वंदना कर निवेदन किया- भगवान् ! मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूं । आप मुझे दीक्षा प्रदान करें । लोग आश्चर्य में पड़ गए । न महारानी या मंत्री से सलाह ली, न किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, न राज्य की भावी व्यवस्था की, फिर यह साधु बनने का अकस्मात् निर्णय क्यों ? भगवान् भी विचित्र थे। उन्होंने तत्काल दशार्णभद्र को दीक्षित कर लिया । साधु बनते
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जैन धर्म के साधना सूत्र
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