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प्रत्याख्यान
पदार्थ जगत् में आदमी लेता ज्यादा जानता है, छोड़ना कम जानता है । वृत्ति ही कुछ ऐसी हो गई कि लोहे की कील भी बेकार हो जाए तो उसे फेंकना नहीं चाहता । कहीं जमा कर रख दी जाती है । छोड़ने की आदत कम है । कुछ लोग ऐसे ही अपने घर को कबाड़खाना बना लेते हैं । इस पदार्थ के जगत् में संग्रह की बात बहुत प्रिय लगती है । जब आध्यात्मिक दृष्टि से चिन्तन किया गया- क्या छोड़ना है और क्या लेना है तब उत्तर मिलालेना कुछ भी नहीं है, सब कुछ छोड़ना ही है । जो कुछ लेना या पाना है, वह अपने भीतर ही है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र आनन्द, शक्ति- जितनी चाहिए, सब भीतर है | बाहर कोई ऐसी अच्छी वस्तु नहीं, जिसे लें । अच्छी चीज हमारे भीतर पहले से ही विद्यमान है ।
संदर्भ स्वारूप का
यह अध्यात्म का अनुभूत सच है- उपादेय कुछ भी नहीं है । हेय ही हेय है । जो विजातीय है, उसे छोड़ना है । स्वास्थ्य का सन्दर्भ लें । सभी स्वस्थ रहना चाहते हैं । किन्तु कुछ विजातीय तत्व इकट्ठे हुए और बीमारियां पैदा कर दीं । ऐसी स्थिति में क्या करना है ? यही है कि जो बाहर के विजातीय तत्व इकट्ठे हुए हैं, उन तत्वों को निकाल देना है । स्वास्थ्य तो पहले से ही है । जो विकृतियां बाहर से आई हैं, उन्हें निकाल दें, उनका रेचन कर दें, स्वास्थ्य मिल जाएगा । स्वास्थ्य कहीं से लाया नहीं जाता । न कोई दवा स्वास्थ्य देती है, न कोई उपचार स्वास्थ्य देता है । ठीक यही बात अध्यात्म जगत् में कही गई- तुम्हें बाहर से कुछ भी नहीं लेना है । परिपूर्ण हो तुम । सब
जैन धर्म के साधना सूत्र
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