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किसी प्रकार की आपको असुविधा तो नहीं हुई ?
आचार्य इन प्रश्नों का उत्तर देते हैं । शिष्य संतुष्ट हो जाता है । इस सुन्दर विधि को अर्थ के साथ समझा जाए और इसका प्रयोग किया जाए तो सुन्दर शिष्टाचार फलित होता है, जनता को शिष्टाचार का प्रशिक्षण मिलता हैं । आज यह अपेक्षा है - इस दृष्टि से समाज इतना शिष्ट लगे कि देखते ही उसकी पहचान स्पष्ट हो जाए ।
शिष्टाचार की पहचान बने
राजगढ़ की घटना है । एक जैन सम्प्रदाय के आचार्य वहां आए, व्याख्यान दिया | व्याख्यान में उन्होंने कहा- कोई इतनी कोड़ियों के फूल चढाए तो इतने देशों का राज्य मिले ! लोग सुनते रहे । राजगढ़ के एक श्रावक भीमराजजी खड़े हुए। वे बोले - दुहाई हो महाराज, बड़ी अद्भुत बात आपने कही- इतनी कोड़ियों के फूल से इतना बड़ा राज्य मिलता है । मैं सैकड़ों रुपयों का फूल चढा दूंगा, मुझे कई देशों का नहीं, सिर्फ राजगढ़ का राज्य चाहिए। एक राजगढ़ का ही राज्य मिल जाए तो निहाल हो जाऊं । आचार्यजी बोले- क्या तुम तेरापंथी हो ? पारखजी बोले- महाराज ! आपने ठीक ही पहचाना, मैं तेरापंथी हूं ।
श्रावक की यह एक पहचान रही है । ऐसे ही एक पहचान शिष्टाचार की बन जाए। आज धर्मस्थानों में इतनी धक्का-मुक्की होती है कि कुछ पूछिए मत । इस ज्वलंत समस्या का समाधान हो जाए। हमारी यह शिष्टता बोलचाल में, उठने, बैठने और चलने में स्पष्ट झलकनी चाहिए। यह पहचान बहुत आवश्यक है और इसके सन्दर्भ में वंदना का पाठ बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसे समझ लिया जाए तो सचमुच एक बहुत बड़ा परिवर्तन संभव है ।
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जैन धर्म के साधना सूत्र
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