________________
देना चाहता हूं । साधक बोला-- मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं अपने में संतुष्ट हूं । देव बोला- नहीं, मुझ पर आपको कृपा करनी ही होगी । मैं कुछ देना चाहता हूं, आप उसे स्वीकार करें । साधक नकारता रहा और देव स्वीकार करने की प्रार्थना करता रहा । देव ने हठ पकड़ लिया । अन्त में साधक ने कहा- अच्छा, तुम कुछ देना ही चाहते हो तो बताओ क्या दोगे ? देव ने कहा- मैं आपको ऐसा वरदान दूंगा कि आप यदि मूर्च्छित या मृत व्यक्ति की ओर आंख उठाकर देख लेंगे तो वह जीवित हो उठेगा । साधक ने कहाइसके साथ-साथ मेरी गर्दन को इस प्रकार कर देना कि वह पीछे मुड़कर देख न सके । यह सुनकर देव आश्चर्यचकित रह गया । उसने पूछा- ऐसा क्यों ? साधक बोला- देखो, तुम्हारे इस वरदान से मेरी जय जयकार होगी । लोग मेरी पूजा करेंगे । यह सब अहंकार को बढ़ाने का उपाय बनेगा | मैं उससे छूट चुका हूं | फिर. कहीं उसमें न फंस जाऊं ।
सचमुच हमारा अहंकार इतना विलीन हो जाए कि क्या हो रहा है, यह देखने के लिए गर्दन मुड़े नहीं । केवल वर्तमान को, सामने को देखते रहें । यदि ऐसी स्थिति जागती है, अहंकार और ममकार का इतना विलय होता है तो भावना का प्रयोग सफल होता है । भावना के क्षेत्र में बहुत बड़ा मंगल होता है- समर्पण, बहुत बड़ा मंगल होता है- श्रद्धा । जिस व्यक्ति ने श्रद्धा का मूल्यांकन किया, समर्पण का मूल्यांकन किया, अहंकार और ममकार का विलय किया, उसके लिए सारा संसार मंगलमय बन गया । चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है, वे तो हमारे ही जैसे पुरुष थे । वे साधना के द्वारा अहंकार और ममकार का विलय कर सत्य के प्रति, धर्म के प्रति, अपना पूर्ण समर्पण कर इस प्रकार के मंगलमय पुरुष बन गए कि उनके प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति भी स्वयं मंगलमय बन जाता है, चारों दिशाएं उसके लिए मंगलमय बन जाती हैं।
भावना का प्रयोग मात्र जानने और लिखने का प्रयोग नहीं है । मैं इस बात में विश्वास नहीं करता जो केवल लिखी गई हो, उस पर साधना न की गई हो । हम केवल लिखें, बोलें और अपने जीवन में कोई अभ्यास या प्रयोग न करें तो यह वही बात होगी कि दूसरों को समृद्धि का पाठ पढ़ाना और
चतुर्विंशति स्तव (२)
१५७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org