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गुरु आचार्य भिक्षु को मानता हूं कि जिनमें इतना अनुशासन था कि कोई भी शिष्य तर्क नहीं कर सकता था । ज्ञान के क्षेत्र में बहुत अवकाश था, वहां तर्क की पूरी छूट थी किन्तु जहां व्यवहार का प्रश्न था वहां तर्क की कोई गुंजाइश नहीं । जो कह दिया, वह मान लिया । वहां मानने की बात मुख्य बन जाती है और इसका बहुत बड़ा महत्त्व है । हमने अभी साधना की दृष्टि से इसका मूल्यांकन नहीं किया । हमने श्रद्धा का प्रयोग ज्ञान के क्षेत्र में किया जो कि नहीं होना चाहिए | श्रद्धा का प्रयोग मात्र साधना के क्षेत्र में होना चाहिए । ज्ञान का क्षेत्र श्रद्धा का क्षेत्र नहीं है । वहां तो बहुत तर्क किया जा सकता है | सारे कठोर तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं । श्रद्धा का क्षेत्र है- साधना का क्षेत्र । हमारा मन जितना निर्विकल्प होगा, वह काम हो जाएगा, बिलकुल हो जाएगा। एक भी विकल्प उठा तो आप मान लीजिए कि सफलता भंग हो गई । थोड़ी-सी रेत उठाई- पानी में डालकर पी लीभयंकर बीमारी मिट गई । क्या वह रेत का कोई चमत्कार है । इस भ्रम में न जाएं कि यह किस व्यक्ति के पैर की रज है । यह श्रद्धा का चमत्कार है ? मन में इतना दृढ़ विश्वास हो गया तो जो होने वाला है, वह निश्चित ही वैसा हो जाएगा । उसमें कोई अन्तर आने वाला नहीं है । कोई ताकत ऐसी नहीं, जो उसको बदल दे । किन्तु श्रद्धा निश्छिद्र होनी चाहिए, प्रगाढ़ होनी चाहिए | हमारा समर्पण वैसा होना चाहिए । हमारे अहंकार और ममकार का पूर्ण विलय होना चाहिए ।
आचार्य भिक्षु ने कहा- कोई किसी का शिष्य नहीं होगा, शिष्या नहीं होगी । सारे शिष्य आचार्य के होंगे । जयाचार्य ने व्यवस्था दी कि पुस्तक पन्ने अपने नहीं होंगे । यह क्यों ? ममकार को मिटाने के लिए । जब तक ममकार नहीं मिटेगा, समर्पण पूरा होगा नहीं, काम पूरा बनेगा नहीं । जब तक अंहकार नहीं मिटेगा, समर्पण नहीं होगा ।
एक बहुत पहुंचे हुए संत थे । इतनी साधना की कि उनका यश चारों ओर फैला । यहां तक कि उनकी कीर्ति देवताओं तक भी पहुंची । एक देवता आकर बोला- महाराज ! आपकी कीर्ति-सुगन्ध चारों ओर फैल रही है । आप महान् तपस्वी और साधक हैं | मुझ पर कृपा करें | मैं आपको कुछ वरदान
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जैन धर्म के साधना सूत्र
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