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ही मारा | चला जा, मुझसे यह मत पूछ, अन्यथा मैं डंडा, लात और चांटे भी मारूंगा, क्योंकि जो प्रश्न अपने आप से पूछना है, वह तू मेरे से पूछने आया है । अभी तुझमें समर्पण नहीं आया । सत्य के प्रति अभी तू समर्पित नहीं हुआ है । जब तक समर्पण नहीं आएगा, तेरा अहंकार और ममकार नहीं छूटेगा, तब तक इस प्रश्न का उत्तर तुझे नहीं मिलेगा ।
साधना का मार्ग पूर्ण समर्पण का मार्ग है | हमारे धर्मसंघ में विनय और समर्पण की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएं उपलब्ध हैं । तेरापंथ का इतिहास समर्पण का इतिहास है । परिणाम भी स्पष्ट है कि आज तेरापंथ धर्मसंघ को जो सुषमा मिली है, जो विकास हुआ है, शायद अन्यत्र कम हुआ है। इसका कारण साफ है कि जब गुरु और शिष्य के बीच में तर्क का व्यवहार होता है, केवल बुद्धि का व्यायाम चलता है तो संघ कभी गतिशील नहीं बन सकता । साधना का मार्ग है- अपने अहंकार का विलयीकरण | मैंने जीवन के दोनों पक्षों का अनुभव किया है । तर्कशास्त्र का विद्यार्थी रहा । इसका पूरा प्रयोग किया और बड़ी मल्लकुश्तियां भी लड़ीं । बड़ी चर्चाएं हुई हैं विद्वानों के बीच में । किन्तु जहां गुरु का प्रश्न था, वहां पूरा समर्पण का अनुभव किया । यह मेरे जैसा भोला व्यक्ति ही कर सकता था, समझदार व्यक्ति तो ऐसा कर ही नहीं सकता।
पूज्य कालूगणी पाली में विराज रहे थे, मैं था अध्यापक गुरु तुलसी के पास | किसी कारणवश उनके मन में कोई नाराज़गी हो गई, वे अप्रसन्न हो गए । मुझे नहीं मान्य था कि वे अप्रसन्न रहें । प्रतिक्रमण के बाद मैं गया । वंदना कर बैठा । पैर पर हाथ रख दिया, पैर पकड़ लिया । कुछ कहने की हिम्मत नहीं रही, बैठा रहा और तब तक बैठा रहा जब तक एक प्रहर रात चली गई । न वे बोले, न मैं बोला । वे अपने सोने के स्थान पर चले गए, मैं अपने सोने के स्थान पर चला गया । क्या ऐसा भोलापन कोई समझदार व्यक्ति कर सकता है ? किन्तु मैं जानता हूं कि जहां गुरु हैं वहां तो यह भोलापन ही काम आ सकता है। यदि गुरु और शिष्य में रोज तर्क की लड़ाइयां लड़ी जाएं, परस्पर में टकराव चलता रहे तो गुरु गुरु नहीं, शिष्य शिष्य नहीं, दोनों निकम्मे हैं । गुरु-गुरु नहीं बना, शिष्य शिष्य नहीं बना ।
चतुर्विंशति स्तव (२)
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