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सुरक्षा के शायद अनेक उपाय काम में लेते हैं । पर महावीर तो अकेले घूमते थे। उनके साथ तो कोई नहीं था, सुरक्षा का कोई उपाय भी नहीं था । फिर कैसे सम्भव था ? आचारांग सूत्र में वर्णन मिलता है कि इतनी भयंकर, कंपा देने वाली बर्फीली हवा, जिसमें लोग बाहर निकलते भी नहीं थे, घर के भीतर आग तापते थे, उस भयानक सर्दी में महावीर रात के समय मकान के बाहर जाकर चंक्रमण करते, जहां कहीं धूप आती वहां से उठकर छांह में जाकर बैठ जाते । आखिर यह कैसे सम्भव था ? जब भावना का प्रयोग होता है, सर्दी के बीच, हिमालय के बीच बैठकर भी पसीना निकाल देना कोई बड़ी बात नहीं है।
दूसरी कसौटी होती थी- भयंकर गर्मी में शरीर को उसी तरह कंपा देना जैसे भयंकर सर्दी से कांपता है । गर्मी के मौसम में सर्दी की भावना का जप किया जाता है, तो वैसा ही परिणाम हो जाता है । यह बिल्कुल ठीक बात है कि हम भावना के द्वारा चांद जैसी निर्मलता, सूर्य जैसी प्रकाशशीलता
और सागर जैसी गम्भीरता को उपलब्ध हो सकते हैं, यदि सिद्धों के प्रति हमारा समर्पण हो, श्रद्धा हो और भावना का प्रयोग हो ।
समर्पण का अर्थ होता है- अपने अहंकार का विसर्जन, अपने ममकार का विसर्जन । जब तक व्यक्ति में अहंकार और ममकार होता है, तब तक समर्पण नहीं हो सकता और यह साधना का क्षेत्र ही ऐसा है, जिसमें केवल समर्पण की ही बात है । साधना के क्षेत्र में कोई व्यक्ति प्रविष्ट हो और समर्पण न करे तो वह कभी सफल नहीं हो सकता । एक सैनिक जितना अपने अधिकारी के प्रति समर्पित होता है, अपनी व्यवस्था के प्रति समर्पित होता है, साधक को उससे भी ज्यादा समर्पित होना होता है ।
जापान में एक धर्म चलता है- झेन बौद्ध । बौद्धों का एक सम्प्रदाय है- झेन बौद्ध । एक शिष्य गया अपने गुरु के पास और बोला- गुरुदेव, मैं कौन हूं, यह जानना चाहता हूं । गुरु ने डंडा उठाया और लगा दिया । वहां से दौड़ा हुआ गया वह मुख्य गुरु के पास शिकायत करने के लिए | बोला- गुरुदेव, मैं तो केवल यह जानने के लिए गया था अपने गुरु के पास कि मैं कौन हूं और उन्होंने मुझे डंडे से मारा । गुरु ने कहा- उसने तो डंडा
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जैन धर्म के साधना सूत्र
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