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हो । कैसे हो सकता है यह ? क्यों हुआ ? यदि हम भावना का प्रयोग करें तो जैसा अनुभव करेंगे, वैसा हो जाएगा ।
बीकानेर में शिविर चल रहा था । नमस्कार मंत्र का प्रयोग चल रहा था । लाल रंग का प्रयोग करवाया । वह दिन शिकायतों का दिन रहा । कोई कहता- आग लग रही है । कोई कहता- सिर फटा जा रहा है । बड़ी समस्या पैदा हो गई । सारा दिन गर्मी का दिन रहा । कई व्यक्ति शिकायतें लेकर पास में आते रहे । ऐसा क्यों होता है ?
चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा ।
सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ यह लोगस्स के सात श्लोकों में से एक श्लोक है । भावना का बहुत बड़ा प्रयोग है । पहले चरण का अर्थ है- चन्द्रमा की भांति निर्मल | दूसरे चरण का अर्थ है- सूर्य की भांति प्रकाशक । तीसरे चरण का अर्थ है- समुद्र की भांति गम्भीर । चौथे चरण का अर्थ है- जो सिद्ध है, वे हमें सिद्धि प्रदान करें । बहुत साधारण-सा अर्थ लगता है, किन्तु समर्पण और श्रद्धा के साथ इस भावना का प्रयोग करें तो चमत्कार घटित हो सकता है । श्रद्धा और समर्पण के साथ जिसने तादात्म्य स्थापित कर लिया, उसे ऐसा लगे कि यह क्या हो गया । बड़ा अजीब-सा हो रहा है । जिसने इसका प्रयोग नहीं किया, वह कह सकता है कि यह क्या ? आज के वैज्ञानिक युग में अंधविश्वास की बात कही जा रही है । मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूं, किन्तु वैज्ञानिक युग में जीता हूं, इसलिए वैज्ञानिक भाषा में बात करना पसन्द करता हूं, अवैज्ञानिक भाषा में ले जाना पसन्द नहीं करता । अंधविश्वास जैसा मैं कुछ मानता ही नहीं । पुराने लोग कहते थे- यह अंधविश्वास है, यह अंधविश्वास है । मैंने अपनी भाषा बदल दी । किसी को भी अंधविश्वास कहना आज दुःसाहस की बात है । कोई दुःसाहसी व्यक्ति ही कह सकता है कि यह अंधविश्वास है । जिनको हम अंधविश्वास मानते थे, आज वे बातें वैज्ञानिक होती चली जा रही हैं । भावना का प्रयोग आज विज्ञान के क्षेत्र में बहुचर्चित हो रहा है । आज का कोई भी वैज्ञानिक दृष्टि वाला व्यक्ति, जो गुणसूत्रों के बारे में थोड़ा-सा भी
चतुर्विशति स्तव
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