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चतुर्विंशति स्तव (२)
चतुर्विंशति स्तव मंगल है । दूसरे शब्दों में यह हमारा समर्पण है । लोगस्स का सूत्र अर्हता का सूत्र है, समर्पण का सूत्र है । लोगस्स सूत्र में चौबीस तीर्थंकरों के प्रति एक साधक के द्वारा समर्पण किया गया है | साधना क्षेत्र में समर्पण का बहुत बड़ा मूल्य होता है । जिसमें श्रद्धा और समर्पण- ये दो तत्व नहीं होते, वह व्यक्ति साधना के क्षेत्र में कभी नहीं उतर सकता । साधना के क्षेत्र में पहला पैर रखने से पूर्व श्रद्धा और समर्पण का अभ्यास करना होता है । श्रद्धा का अपना मूल्य होता है, बहुत बड़ा मूल्य होता है । मैं श्रद्धा के विपक्ष में भी बहुत चर्चा किया करता हूं किन्तु वह एक क्षेत्र का भेद है । एक विपर्यय हो गया, एक उल्टी बात हो गयी कि जहां श्रद्धा होनी चाहिए, वहां हमारे मन में सन्देह हो गया । जहां सन्देह और तर्क होना चाहिए, वहां हम श्रद्धा का प्रयोग कर रहे हैं । जहां सत्य की खोज, सत्य की शोध का प्रश्न है, वहां श्रद्धा की कोई आवश्यकता नहीं है । वहां तो शल्य-चिकित्सा होनी चाहिए । मैंने भगवान् महावीर, आचार्य भिक्षु के विचारों की शल्यचिकित्सा की तो ऐसा लग सकता है कि मुझमें श्रद्धा नहीं है । मैं मानता हूं कि इस क्षेत्र में श्रद्धा होनी ही नहीं चाहिए | जहां सत्य को समझना है, वहां हमारे सामने कसौटी होनी चाहिए, वहां हमारे हाथ में तुला होनी चाहिए कि हम तोल सकें, कसौटी कर सकें । वहां हाथ में चाकू होना चाहिए कि हम शल्य-चिकित्सा कर सकें, चीड़-फाड़ कर देख सकें । सत्य को स्वीकार ऐसे ही नहीं किया जाता । उसे स्वीकार करने के लिए बहुत खपने-तपने की जरूरत होती है।
आचार्य भिक्षु को एक भाई गालियां दे रहा था । लोगों ने कहाचतुर्विंशति स्तव (२)
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