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कित्तिय वंदिय मए, जे ए लोगस्य उत्तमा सिद्धा । आरोग्ग-बोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं दितु ॥६।। चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागर-वरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥
भक्ति क्यों ?
प्रश्न है- भक्ति क्यों करें ? भक्ति या स्तुति का प्रयोजन है- मन की निर्मलता या भाव की विशुद्धि । भक्ति हो और मन की निर्मलता न बढे, भावविशुद्धि न हो तो प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । मन की एकाग्रता निर्मलता
और भावविशुद्धि का योग मिलता है तो मनुष्य का चित्त भावित हो जाता है । जैसे हरडे भावित होती है तो उसकी शक्ति शत-गुणित हो जाती है | वैसे ही य र ल व आदि अक्षर भावित होते हैं तो उनकी शक्ति बढ जाती है । भावित होने का साधन है मन की निर्मलता और पवित्रता ।
निष्काम भक्ति
जैन भक्ति निष्काम भक्ति है । एक सकाम भक्ति होती है और एक निष्काम भक्ति होती है । सकाम भक्ति वहां होती है, जहां कोई मांग होती है । केवल आत्मशुद्धि के लिए जो भक्ति होती है, उसे निष्काम भक्ति कहते हैं । इसमें कोई कामना नहीं होती । प्रश्न हो सकता है- कामना क्यों नहीं ? कामना तो की जा रही है और लोगस्स में भी कहा गया-आरोग्ग बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु- प्रभो ! आप मुझे आरोग्य दें, बोधि और समाधि दें | आरोग्य, बोधि और समाधि- ये तीन कामनाएं की गई हैं । यह कामना एक ऊंचे स्तर की कामना है | कामना का भी स्तर होता है । छोटी चीज की भी मांग होती है । बोधि और समाधि की कामना इसलिए है कि हमारी वृत्ति का उदात्तीकरण हो जाए, वह ऊर्ध्वगामी हो जाए | आरोग्य की कामना भी छोटी कामना नहीं है | यह साध्य का निमित्त है । सिद्धान्त यह होना चाहिएहम आत्मशुद्धि के लिए सारा काम करें | साथ में प्रासंगिक रूप में कोई चीज
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जैन धर्म के साधना सूत्र
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