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तदपि तरणे ! तेजःपुञ्ज ! प्रियो न ममैष ते । किमपि तिरयन् ज्योतिष्चक्रं स्वजातिविराजितम् ।।
चतुर्विंशति स्तव
वह भक्ति भी हमें अच्छी नहीं लगती है, जो हमेशा भक्ति ही बनी रहे | महान् व्यक्तित्व वह होता है,जो सबको चमकाता है, अपने सदृश बनाता है । भक्ति के इस सिद्धान्त को सम्यक् प्रकार से समझें । जैनदर्शन में ज्ञानयोग का महत्व है तो भक्तियोग का महत्व भी कम नहीं है । अपने भीतर के विजातीय तत्वों को दूर करने के लिए भक्ति बहुत अच्छा आलंबन है, सहारा है । इससे आत्मा का बहुत शोधन हो जाता है । भक्ति ही भक्त को पवित्र बनाए रखती है । एक मुनि और श्रावक के लिए जो दूसरा करणीय है, वह है स्तुति, भक्ति या उत्कीर्तन | उस भक्ति या कीर्तन में 'चउवीसत्थव'- चतुर्शिति स्तव का नाम महत्त्वपूर्ण है । आदिवचन से इसे ही लोगस्स का पाठ कहा जाता है । इस लोगस्स के पाठ में सात गाथाएं हैं और उनमें चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है । इसलिए यह बहुत बड़ा सप्तपदी मंत्र है, साता गाथाओं वाला एक महामंत्र है।
लोगस्स उज्जोयगरे, . धम्मतित्थयरे जिणे । अरहते कित्तइस्स, चउवीसंपि केवली ॥१॥ उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइं च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुष्पदंतं, सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च । विमलमणंतं च जिणं, धर्म संतिं च वंदामि ।।३।। कुंथु अरं च मल्लि, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्ठनेमि, पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥ एवं मए अभिथुआ, विहुय-रयमला पहीणजर-मरणा ।। चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ।।५।।
. चतुर्विंशति स्तव
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