________________
पर ध्यान दें- आप जैसा बन जाता है, आपमें विलीन नहीं होता । एक भक्ति है परमात्मा में विलीन हो जाना, अपने अस्तित्व को समाप्त कर लेना । यह जैनदर्शन में सम्मत नहीं है । हम अपने अस्तित्व को समाप्त नहीं करते हैं । जो अस्तित्व मुश्किल से मिला है, उसे समाप्त क्यों कर दें ? वीतराग की भक्ति कर वीतराग जैसा बन जाना, यह भक्ति का महत्त्वपूर्ण स्वरूप है । आचार्य मानतुंग ने वीतराग प्रभु की वंदना करते हुए लिखा- प्रभो ! उस भगवान् से मुझे क्या, जो अपने भक्त को अपने बराबर नहीं बना देता । मुझे उस भगवान् की जरूरत है, जो अपने भक्त को भी भगवान् बना दे ।
राजलदेसर में पूज्य गुरुदेव ने मुझे आदेश दिया- तुम आओ और मेरे बराबर बैठो । मेरे संकोच की सीमा न रही। मैं जो सदा आपका भक्त रहा, शिष्य रहा, बराबर कैसे बैठता ? पर पूज्य गुरुदेव ने हाथ पकड़ कर बिठा दिया। तब मैंने आचार्य मानतुंग के इसी श्लोक को उद्धृत करते हुए अपनी भावांजलि प्रस्तुत की
नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ।
१४०
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥
जैन दर्शन की भक्ति भक्त को भगवान् बनाने वाली भक्ति है, भक्त को शाश्वत भक्त रखने वाली भक्ति नहीं है । एक संस्कृत कवि ने सूर्य को अपना विषय बनाते हुए लिखा- सूरज ! तू आते ही सारी पृथ्वी को आलोकित कर देता है, सोये लोगों को जगा देता है, यह तुम्हारी सबसे बड़ी विशेषता है किन्तु तुम आते ही आकाश के सारे ग्रह-नक्षत्रों को अस्त कर देते हो, अपने स्वजाति जनों को बुझाकर अकेले चमकना चाहते हो इसलिए तुम मुझे अच्छा नहीं लगते ।
तिमिरलहरी गुर्वी मुर्वी करोतु विकस्वरां, हरतु नितरां निद्रामुद्रां क्षणात् गणिनां गणात् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
जैन धर्म के साधना सूत्र
www.jainelibrary.org