________________
न किसी का सेवक या दास बनना है,न ही किसी की शरण में जाना है। इसीलिए एक जैन कवि ने लिखा है :
मोख देत नहिं हमको, हम जाएं किहि डेरा । प्रभु ! आप हमें मोक्ष नहीं देते हैं तो फिर हम किस डेरे पर जाएं ? कहां जाए ?
आलंबन है भक्ति
जयाचार्य ने कहा- जो आपकी स्मृति करता है, वह आपमें मिल जाता है। यह अन्तर्विरोध क्यों ? वस्तुतः यह अन्तर्विरोध नहीं है, मन की पवित्रता है । मन को निर्मल करने के लिए एक आलंबन की जरूरत है । हम परमात्मा अथवा मुक्तात्मा को एक आलंबन मानते हैं, कर्ता नहीं । जैसे लता को ऊपर चढने के लिए एक आलंबन या सहारा चाहिए, उसी तरह पूर्णता प्राप्ति के पूर्व हमें भी एक आलंबन चाहिए । जैसे दीवार बेल को बढने में सहारा नहीं देती, उसी तरह कर्ता भी सहारा नहीं होता । भक्ति वह सहारा है । भक्ति है हमारा आलंबन | कर्तृत्व के प्रति भक्ति नहीं है । आलंबन के प्रति भक्ति है | आलंबन का भी बड़ा मूल्य होता है। उससे हमारी चेतना निर्मल बनती है । योग का एक सिद्धान्त है, जिसे गुण-संक्रमण का सिद्धान्त कहा जाता है। व्यक्ति एक अच्छे आदमी के सामने जाकर बैठे । उसे देखे, देखता रहे । उसका गुण उसमें संक्रान्त होना शुरू हो जाएगा । योग की प्रक्रिया है- अगर शारीरिक शक्ति को बढाना है तो बाहुबलि या हनुमान की पराक्रमता का ध्यान करो, व्यक्ति के भीतर शक्ति का संचार शुरू हो जाएगा । वैनतेय या गुरुण का ध्यान करो, गति में तीव्रता आ जाएगी ।
गुण-संक्रमण
जैन दर्शन की भक्ति गुण-संक्रमण की भक्ति है । हम वीतराग का ध्यान करें, वीतरागता के गुण हममें संक्रान्त होने शुरू हो जाएंगे । जयाचार्य ने लिखा- आपकी भक्ति करने वाला आप जैसा बन जाता है । हम इन शब्दों
चतुर्विंशति स्तव
१३९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org