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संभव नहीं है । साधारणतया प्रतिकूल परिस्थिति को सहन करने के अर्थ में सहिष्णुता का प्रयोग होता है । यह उसका एक पक्ष है । उसका दूसरा पक्ष है अनुकूल परिस्थिति को सहन करना । प्रतिकूल परिस्थिति को सहन करना कठिन है । अनुकूल परिस्थिति को सहन करना कठिनतर है । जो चरण निन्दा की भूमि पर नहीं फिसलते, वे प्रशंसा की भूमि पर फिसल जाते हैं ।
भगवान् ऋषभ की आध्यात्मिक जीवनचर्या का स्तुति की शब्दावली में एक गाथा में शब्दांकन कर जयाचार्य ने स्तुति-कौशल का निदर्शन प्रस्तुत किया है । यदि हम चौबीसी के प्रत्येक पद और प्रत्येक गाथा को गहराई से पढ़ें तो प्रतीत होगा कि यह स्तुति-ग्रन्थ पतंजलि का योगग्रन्थ और कुन्दकुन्द का अध्यात्म ग्रन्थ है।
प्रश्न शरणागति का
भक्ति का एक रूप होता है शरणागति, शरण में चले जाना । जयाचार्य ने बार-बार प्रभु की शरण ली है, अपने आपको दास कहा है । प्रश्न हो सकता है- जैनदर्शन में दास और शरणागति की बात कैसे हो सकती है ? जैन परंपरा में ईश्वर को कर्ता नहीं माना गया है । भक्ति तो वहां होती है, जहां कोई कर्ता हो, कुछ देता हो । जैनदर्शन देने वाला किसी को मानता नहीं है | वह प्रत्येक आत्मा को परिपूर्ण मानता है । वैष्णवों की भक्ति और जैनों की भक्ति में जो एक मूलभूत अन्तर है, वह यह है- वैष्णव भक्ति में ईश्वर दाता रूप है, जैनदर्शन का ईश्वर दाता नहीं है । जहां देने वाली बात है, वहां भक्ति स्वाभाविक है । यह भक्ति दुर्बलता की है। दुर्बल को चाहिए, समर्थ को किस चीज की जरूरत है | जिसमें शक्ति है, उसे भक्ति करने की जरूरत नहीं है । जब शक्ति कम होती है, तब भक्ति की जरूरत पड़ती है । वैष्णव मान्यता में एक ईश्वर है और सब आत्माएं उस ईश्वर की अंश हैं । जैन दर्शन की मान्यता इससे भिन्न है । जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा ईश्वर है, अपने आप में परिपूर्ण है, कोई किसी ईश्वर का अंश नहीं है । कोई किसी का यंत्र नहीं है, किसी में विलीन नहीं होता है, मिलता नहीं है । व्यक्ति यंत्र नहीं, स्वतंत्र है । मुक्त आत्मा की जैसी आत्मा है, वैसी ही उसकी आत्मा है । उसे
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जैन धर्म के साधना सूत्र
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