________________
ही भ्रष्टाचार, उतनी ही बुराइयां और हिंसा बढ़ती जा रही है। दुनिया धर्म स्थानों और धामिकों से भरी पड़ी है फिर भी यह क्यों ? मैंने कहा कि यह मानना भी एक भ्रान्ति है कि इतने धार्मिक और इतनी हिंसा, बुराइयां और भ्रष्टाचार | उन्होंने कहा - भ्रान्ति कहां है ? ईसाइयों के अनुयायी एक अरब से ज्यादा हैं, मुसलमान होंगे सत्तर - अस्सी करोड़, बौद्ध होंगे पचास करोड़ | इसी प्रकार हिन्दु, जैन आदि भी करोड़ों में हैं । ये सब धार्मिक लोग हैं। मैंने कहा- यही भ्रांति है । यह संख्या धार्मिकों की नहीं, धर्म के अनुयायियों की है। धर्म का अनुयायी होना अलग बात है और धार्मिक होना बिल्कुल अलग बात है । धर्म का अनुयायी होना तो भीड़ है । महावीर के अनुयायियों की संख्या भी बहुत बड़ी हो सकती है लेकिन धार्मिकों की संख्या कितनी है ? भगवान् महावीर के श्रावक धार्मिक थे | आनन्द धार्मिक था, कामदेव धार्मिक था । ये धर्म के अनुयायी नहीं थे लेकिन धार्मिक थे । अनुयायी सिर्फ वोट होते हैं । जिस तरह राजनीतिक पार्टी में दो तरह के सदस्य होते हैं । एक सक्रिय कार्यकर्त्ता होते हैं और एक पार्टी के सदस्य । सदस्य मात्र वोट देने का काम करते हैं । अनुयायी केवल उस सम्प्रदाय की संख्या बढ़ाने का काम करते हैं । धार्मिक तो वह होगा, जिसने धर्म को जीवन में उतारा है। ज्यादा हैं सुलभ बोधि
वस्तुतः वह जैन श्रावक है, जिसने बारह व्रतों को स्वीकारा है । जिसने बारह व्रतों को नहीं स्वीकारा, उसे श्रावक नहीं कहा जा सकता। वह 'संज्ञी' कहलाता है । संज्ञी का अर्थ है - सम्यग्दृष्टि । तीसरा है - यथाभद्रक | वह धर्म को नहीं समझता, सीधा और सरल है। चौथा है - सुलभबोधि - वह भी धर्म के मर्म को नहीं समझता, पर उसमें धर्म के प्रति अनुराग है। दूसरे शब्दों में सुलभबोधि को धर्म का अनुयायी कहा जा सकता है । संसार में ज्यादा संख्या सुलभबोधि लोगों की हैं अर्थात् धर्म के अनुयायियों की है, धार्मिकों की नहीं । संसार की आबादी है पांच अरब । इनमें से धार्मिक कितने होंगे ? पांच अरब में यदि एक करोड़ धार्मिक भी मिल जाएं तो बहुत बड़ी बात माननी चाहिए । मैं तो मानता हूं कि वास्तविक धार्मिक लोग यदि एक लाख भी मिल जाएं तो दुनिया का बड़ा सौभाग्य समझना चाहिए। बहुत कठिन है धार्मिक होना । धार्मिक और धर्म के अनुयायियों के बीच की यह भेदरेखा
जैन धर्म के साधना - सूत्र
१२६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org