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राग-द्वेष से मुक्त है, उसकी शरण लेने में कोई खतरा नहीं है । यदि आत्मकर्तृत्ववादियों के लिए कोई शरणभूत –आधारभूत हो सकता है तो वह वीतराग पुरुष ही हो सकता है । इसका रहस्य है- निरपेक्षता । वीतराग के साथ व्यक्ति का जो संबंध होता है, वह सापेक्ष नहीं है । वीतराग किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता ।
वस्तुतः शरण या आधार वही हो सकता है जो वीतराग है, राग-द्वेष से मुक्त है, निरपेक्ष है | इसलिए शरण के पीछे दो शर्ते रखी गईं । पहली शर्त है- जो मंगल है, वही शरण होगा । अमंगल कभी शरण लेने योग्य नहीं होता । दूसरी शर्त है-शरण वह होगा, जो लोक में उत्तम है । अनुत्तम कभी शरण नहीं हो सकता । उत्तम का अर्थ है- प्रबलतम । प्रबलतम वह होता है, जो शिखर पर पहुंच गया है । दो बातें स्पष्ट हो गईं कि जो मंगल है, जो लोक में उत्तम है, वही शरण है । मंगल है आत्मा
अर्हत्, सिद्ध, साधु और धर्म-ये चार मंगल हैं, उत्तम हैं इसीलिए व्यक्ति इन चारों की शरण स्वीकार करता है । अर्हत् वीतराग है इसलिए मंगल हैं। सिद्ध सर्वथा आत्मा है, केवल आत्मा । आत्मा से बढ़कर आत्मवादी के लिए कोई मंगल नहीं हो सकता । आत्मवादी का परम मंगल है आत्मा । सिद्ध
और आत्मा-दो नहीं हैं । चाहे सिद्ध कहो, चाहे आत्मा कहो, कोई अन्तर नहीं है । आत्मा का नाम ही सिद्ध है और सिद्ध का नाम ही आत्मा है । साधु को भी मंगल माना गया है | साधु का मंगल अध्यात्म का मंगल है । साधु साधना का प्रतीक है । जो साधना में, आत्मा में रहता है, रहने की कोशिश करता है । वह है साधु । धर्म मंगल है। धर्म आत्मा का स्वरूप है । आत्मा को छोड़कर कोई मंगल नहीं है । जैन दर्शन की भाषा में, जैन आचार शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक मात्र मंगल है आत्मा । जहां आत्मा अनात्मा हुआ,वहां अमंगल हो गया । द्रव्य मंगल, लौकिक मंगल की बात छोड़ दें। सबसे बड़ा मंगल धर्म है । इस आधार पर इसका प्रयोग किया जा सकता है। कोई भी कार्य करना है, मूहूर्त हो या न हो, आत्मा में रमण कर, आत्मा की अनुभूति करता हुआ काम करे तो वह मंगल हो जाएगा । परम्परा रही है कि यात्रा करनी है और शकुन नहीं हो रहा है, मुहूर्त नहीं मिल रहा है
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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