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मेरे सामने आयेगा, मैं उसमें घुस जाऊंगा | मेरे घर को आ जाने दो ।'
कितना बड़ा भ्रम ! कितना बड़ा धोखा ! शरण है आत्मा
हमारे सारे सामाजिक या पारिवारिक संबंध स्वार्थ-सापेक्ष हैं । यह प्रत्यक्ष सत्य है । इसे नकारा नहीं जा सकता । हम भी शराबी की भांति मूर्छा में जीते हैं और मान लेते हैं कि घर मुझे त्राण देगा । मेरे लिए वह शरण है। घर का पर्यायवाची शब्द है शरण | घर और शरण एक ही है । आत्मकर्तृत्ववादियों ने इस भ्रान्ति को तोड़ा और कहा-शरण कोई नहीं है । शरण है केवल आत्मा । उनका घोष रहा-'अप्पा कत्ता विकत्ता य ।' 'अप्पदीवो भव' आत्मा ही शरण है, आत्मा ही प्रकाशदीप है ।
साधना के क्षेत्र में, आत्माराधना के क्षेत्र में जिस व्यक्ति ने एकत्व को मानकर अपनी साधना शुरू नहीं की, वह धोखे में रहेगा, उसे अनेक कठिनाइयां झेलनी पड़ेंगी । अध्यात्म की यह अंतिम सचाई है- 'न मैं किसी का हं और न मेरा कोई है। न मैं किसी का शरण हूं और न मेरा कोई शरण है ।' व्यवहार में सापेक्षता से जुड़ा है व्यक्ति, एक दूसरे का काम एक दूसरे से चलता है | पारस्परिक सहयोग से सारे काम निष्पन्न होते हैं । यह व्यवहार की सचाई है । इसे निश्चय की सचाई नहीं माना जा सकता ।
यह अनुभव अनेक बार होता है । दो व्यक्ति पचास वर्ष तक साथ रहे, और एक दिन ऐसा आया कि वे एक दूसरे से अलग हो गए । आश्चर्य होता है, यह कैसे घटित हुआ ? क्यों हुआ? यह स्वार्थ-संवलित सापेक्षता थी । स्वार्थ विघटित हुआ और सापेक्षता विघटित हो गई। अंतिम सच है- अकेला होना, एकाकी जीवन जीना । यह अत्यंत सुखद घटना है और पदार्थ-जगत् में इससे बड़ी सुखद घटना दूसरी हो नहीं सकती । शरणभूत कौन ?
मूल प्रश्न है-जैन परंपरा में शरणागत की बात कैसे जुड़ी ? वीतराग को शरण प्रदाता क्यों माना गया? यह प्रश्न उचित है । इसका एक प्रयोजन है- राग-द्वेष से द्विष्ट व्यक्ति कभी भी शरण देने योग्य नहीं हो सकता। उसकी शरण खतरे से खाली नहीं होती । पता नहीं, कब कैसा मोड़ ले ले ? जो
चत्तारि सरणं पवज्जामि
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