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चत्तारि सरणं पवज्जामि
दर्शन की दो धाराएं हैं - ईश्वर - कर्तृत्ववादी धारा और आत्म-कर्तृत्वादी धारा । ईश्वर कर्तृत्ववादी धारा से भक्तिवाद का विकास हुआ और उसमें शरणागत की बात को महत्त्व मिला । आत्म-कर्तृत्वादी धारा में आत्मा ही कर्त्ता है, दूसरा कोई कर्त्ता नहीं होता । वहां शरण का प्रश्न ही नहीं उठता । एक प्रश्न सामने आता है कि जैन और बौद्ध आत्म-कर्तृत्ववादी हैं तो फिर उनमें शरणागत की बात कैसे आई ?
भगवान् महावीर ने कहा - 'नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा । तुमं पि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा' - आत्मन् ! माता, पिता, भाई, बहिन आदि कोई भी तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उनको त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो । जब परिवार वाले भी त्राण देने में समर्थ नहीं हो सकते तो दूसरा कौन त्राण दे सकता है ?
संबंध हैं स्वार्थ सापेक्ष
यथार्थ और निश्चय की भाषा में सोचें तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि हमारे सारे सामाजिक या पारिवारिक संबंध स्वार्थ- सापेक्ष हैं । जब तक स्वार्ध का धागा जुड़ा रहता है तब तक संबंध बना रहता है, सहयोग चलता रहता है । जिस दिन स्वार्थ में कमी आती है, सापेक्षता कम होती है तब सारा संबंध टूट जाता है | स्वार्थ और सापेक्षता को न समझना, बहुत बड़ा धोखा है । सुरापान करने वाला व्यक्ति जितना धोखा खाता है, उससे अधिक धोखा खाता है स्वार्थ और सापेक्षता को न समझने वाला ।
एक सुरापायी सड़क पर घूम रहा था । सिपाही ने कहा- 'अरे ! इतना समय हो गया तुमको यहां घूमते, अपने घर क्यों नहीं चले जाते ?' वह बोलातुम्हें पता नहीं है । मैं क्या, सारा नगर घूम रहा है । जिस समय मेरा घर
जैन धर्म के साधना - सूत्र
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