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जल जाते है । दीप को जलाएं, बुझाएं नहीं । वह प्रकाश, वह ज्ञान अच्छा नहीं होता, जो केवल अकेला चमके, सबको छिपा दे । आचार्य तुलसी की सबसे बड़ी महानता यही है कि वे अकेले नहीं चमके, पूरे संघ को चमकाने के साथ-साथ चमके हैं । इतिहास में ऐसा हुआ है । कोई एक मुखिया हो गया तो फिर उसका यही प्रयत्न होता है कि दूसरा और कोई नाम उभरकर न आए, सबको पीछे ही धकेलने की कोशिश । ऐसे अनेक व्यक्ति हमें भी यही सलाह देने पहुंच जाते हैं । वे कहते हैं, 'महाराज ! ध्यान दो, आप इतने साधु-साध्वियों को पढ़ा रहे हैं, किन्तु एक दिन ये ऐसे सिर पर हावी हो जाएंगे कि आप पश्चात्ताप करेंगे । नीति की बात तो यह है कि एक आचार्य या कुछ प्रमुख साधु पढ़ गए, बाकी को तो पात्ररा ढोने के काम में ही लगाए रखो, जिससे कि ठीक-ठाक काम चलता रहे ।' ऐसे सुझाव एक नहीं, अनेक बार आए हैं । एक दृष्टि से सोचें तो यह ठीक है । राजनीति की दृष्टि से तो यह ठीक है कि जनता को इतना बेवकूफ बनाए रखो कि वह अपनेअपने अधिकारों की मांग न कर सके । कुर्सी बची रहे और राज्यसत्ता कायम रहे । किन्तु इस प्रकार का चिन्तन सर्वथा अनुचित है । वास्तव में वही व्यक्ति महान् होता है, जो स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी चमकाता है |
वही ज्ञान मंगल होता है, जो दूसरों को जगाए, बुझाए नहीं । वही आनन्द मंगल होता है, जो दूसरों में दुःख न बांटे बल्कि उनमें आनन्द बिखेरे | वही शक्ति मंगल होती है, जो दूसरों के लिए पीड़ाकारक न बने । इसीलिए हम 'चत्तारि मंगलं' सूत्र को मंगल मानते हैं और प्रवृत्ति के प्रारम्भ में इस महामंगल का उपयोग करते हैं।
चत्तारि मंगल
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