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________________ हूं, तभी यह प्रशंसा है । मेरे पास कोई आडम्बर नहीं है, इसीलिए इतना नाम हम लोग एक दिन गोचरी के लिए गए । एक छोटे बच्चे ने हाथ में बिस्कुट ले रखा था । आग्रह करने लगा तो मैंने पूछा, 'बताओ, तुम खाओगे या दोगे ?' 'दूंगा। हमने कहा, 'तों फिर एक दे दो।' 'नहीं, सब दूंगा।' माता ने कहा, "जब तक इसके हाथ के सब बिस्कुट नहीं ले लेंगे, यह रोएगा, मानेगा नहीं ।” मेरे मन में एक चिन्तन आया- यह दान वह दान नहीं है, जहां देने वाले का हाथ ऊंचा और लेने वाले का हाथ नीचा रहे । यह वह दान है, जहां लेने वाला अपने आपको धन्य नहीं मानता, किन्तु देने वाला देकर अपने आपको धन्य मानता है, कृतार्थ मानता है । बहुत बड़ा अन्तर है । एक आदमी देता है और देते समय उसका अहंकार इतना जाग जाता है कि अपने आपको धन्य और लेने वाले को तुच्छ मान लेता है । साधु को दिया जाने वाला दान किसी त्यागी-तपस्वी को दिया जाने वाला दान ऐसा दान, नहीं होता कि देने. वाला अपने आपको बहुत बड़ा दानी और अहंकारी माने । उसे अपने को धन्य मानना चाहिए, कृतार्थ मानना चाहिए और उसमें यह भावना जागृत होनी चाहिए कि ऐसा दान देकर मैं सफल हो गया, कृतकृत्य हो गया । वह समृद्धि, वह आनन्द जो दूसरों को हीन न बनाए, दूसरों को छोटा न बनाए, सचमुच मंगल है। मंगल ज्ञान तीसरी बात है-ज्ञान मंगल होता है । ज्ञान वह मंगल होता है,जो दूसरों के चैतन्य को जगा दे । दीया बुझे नहीं, जग जाए । आचार्य की एक विशेषता अनुयोगद्वार सूत्र में बतलाई गई है कि जैसे एक दीप से हजारों दीप जल जाते हैं, उसी प्रकार आचार्य वह होता है, जिसके ज्ञान से हजारों दीपक १२० जैन धर्म के साधना-सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003052
Book TitleJain Dharma ke Sadhna Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size10 MB
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