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समस्या बन जाए, किसी काम की नहीं है । अपनी समृद्धि को कोई बांटता नहीं, अपने आनन्द को बांटता नहीं, किन्तु अपने अहंकार और दुःख को हर कोई दूसरों में बांटना चाहता है । दुःख को दूसरों में बांटने वाले बहुत मिलते हैं, मिटाने वाले कम । शायद इस पदार्थ जगत् में होने वाले आनन्द
का सिद्धान्त ही यह है कि दूसरों के कंधों पर बन्दूक रखकर गोली छोड़ी जाए। यह सामान्य सिद्धान्त बन गया है आज का ।
___ यह सम्पदा, सम्पत्ति हमेशा दूसरों के आधार पर होती है। आज भारतीय लोगों की समस्या है कि नौकर नहीं मिलते । अरे, दो हाथों से काम लो | उपनिषद् में ऋषियों ने कहा है-जिनके पास बीस अंगुलियां होती हैं, उनको किसी बात की चिन्ता नहीं होती । आज जब हमने अपने आप को ही भुला दिया तब अपनी अंगुलियों पर भरोसा कैसे होगा ? आज यह भरोसा नहीं रहा । हर आदमी को नौकर चाहिए और नौकर महंगे व दुर्लभ होते जा रहे
सम्पदा के साथ जुड़ा हुआ है- दूसरों का दुःख । पदार्थ के साथ-साथ होने वाले सुख, समृद्धि और आनन्द की गाथा यही रही है कि दूसरे उससे छोटे एवं दुःखी होने चाहिए । मंगल वह आनंद होता है, जहां समृद्धि के लिए दूसरों को गरीब न बनाना पड़े, अपने ऐश्वर्य और प्रभुत्व के लिए दूसरों को नीचा न दिखाना पड़े। ___आचार्य भिक्षु जंगल में पेड़ के नीचे बैठे थे । एक भाई उधर से गुजरा देखा, कोई साधु पेड़ के नीचे बैठा है | प्रणाम किया और पूछा-'महाराज ! आपका क्या नाम है ?'
'मेरा नाम भीखण है ।'
'भीखण जी आप ही हैं । वही तेरापंथी भीखण ? मेरे मन में तो एक दूसरी ही तस्वीर थी आपकी | मैंने तो आपकी बड़ी महिमा, यश और कीर्ति सुनी थी । सोचता था- कितने हाथी, घोड़े, रथ तथा सेवक आदि साथ में रहते होंगे आपके । पर आप तो इस निर्जन एकान्त में अकेले ही दिखाई दे रहे हैं । सारी तस्वीर खण्डित हो गई।'
आचार्य भिक्षु ने कितनी पार्मिक बात कही । उन्होंने कहा- 'मैं अकेला
चत्तारि मंगल
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