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आता है, अपनी आत्मा में रहता है, वैसे-वैसे वह मंगल की परिधि में प्रवेश करता जाता है तब उसे कोई प्रभावित नहीं कर पाता । जैन इतिहास की प्रसिद्ध घटना है-मुनि सुदर्शन अपनी आत्मा में अवस्थित हो गए, कापालिक ने क्रूर दैवीशक्ति का प्रयोग किया, किन्तु वह सुदर्शन को प्रभावित नहीं कर सकी। अपने लक्ष्य में विफल उस शक्ति ने कापालिक को ही भस्म कर दिया ।
मंगल है आत्मा में होना
जो व्यक्ति आत्मा में है, उस पर कोई प्रभाव नहीं होता । जो बाहर है, आत्मा से दूर चला गया है वह शीघ्र प्रभावित हो जाता है । एक शब्द में कहा जा सकता है- आत्मा में होना मंगल है और आत्मा से बाहर चले जाना अमंगल है। सबका मंगल हो, इसका तात्पर्य है प्रत्येक आत्मा का मंगल हो । चाहे व्यक्ति छोटा हो या बड़ा, मंगल भावना सबके प्रति होनी चाहिए । छोटों की बड़ों के प्रति और बड़ों की छोटों के प्रति आचार्य की शिष्य के प्रति और शिष्य की आचार्य के प्रति । जब शिष्य दीक्षित होता है, गुरु उसके मंगल भविष्य के लिए इन शब्दों में आशीर्वाद देते हैं - तुम ज्ञान से, दर्शन से, चरित्र और तप से, क्षान्ति और मुक्ति से सदा वर्धमान रहो
नाणेण दंसणेण य, चरित्तेण तवेण य । खंतिए मुत्तीए, वडमाणो भवाहि य ।।
मंगल की सूचक हैं भावनाएं
यह मंगल भावना का मंत्र सबके लिए आवश्यक है, क्योंकि कोई व्यक्ति अकेला नहीं है, निरपेक्ष नहीं है, सब सापेक्ष हैं । संघ या समुदाय चलता है सापेक्षता से । अकेला आचार्य संघ को नहीं चला सकता, अकेला साधु संघ को नहीं चला सकता । सब इतने सापेक्ष हैं कि एक के बिना दूसरे का काम नहीं चलता । व्यक्ति स्वस्थ रहे, सुखी रहे, आनन्दमय रहे, विकास करता रहे, ये उदात्त भावनाएं जीवन के मंगल की सूचक हैं । जैन साहित्य में सोलह अनुप्रेक्षाएं - भावनाएं बतलाई गई हैं। सबसे पहले जो करणीय है, वह है मंगल की भावना |
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जैन धर्म के साधना- सूत्र
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