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फिर उनका समावेश इस पांच परमेष्ठियों में क्यों नहीं ? इसका समाधान सरल है । परमेष्ठी की कक्षा में सम्मिलित वह हो सकता है, जो अनगार है, जिसका अपना कोई घर नहीं है | गृहस्थ घरवासी है, घरवासी की साधना सीमित होती है । दूसरी कसौटी है कि वह निग्रंथ हो, ग्रन्थि मुक्त हो । घर में रहने वाला ससीम होता है, ग्रंथ सहित होता है | जो असीम की साधना करता है, वह होता है अनगार ।
ससीम में असीम का अवतरण ___साधु ससीम नही होता, वह असीम होता है । नमस्कार महामन्त्र के निर्माता ने इसको ध्यान में रखकर ही पांचवें पद का निर्माण किया है | पहले चार पदों में 'सव्व' सर्व शब्द नहीं जोड़ा और पांचवें पद में उसे जोड़कर कहा-णमो लोए सब्व साहूणं । पूरे लोक में जितने साधु हैं, साधना करने वाले हैं, उनको मेरा नमस्कार | यह साधु की असीमता का वाचक है । _ अक्षरों की दृष्टि से विचार करें तो भी अन्तिम पद भारी बनता है । इसी पद में हैं नौ अक्षर । पहले पद में सात, दूसरे में पांच, तीसरे में सात, चौथे में सात अक्षर हैं । अन्तिम पद में हैं नौ ।
साधना का मूल जब असीम बन जाता है तब साधना का विकास होता जाता है । हम इस सचाई को मानें कि ससीम से असीम में आना वास्तव में असीम होने की दिशा का उद्घाटन करना है । ससीम में असीम के अवतरण का नाम है साधना ।
णमो लोए सव्व साहूणं
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