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संघर्षरत व्यक्तियों से कहा गया- दोनों बहस करें। जब तक निबटारा न हो तब तक बहस करें । शर्त यह है कि जिसको गुस्सा आ जाएगा, आवेश या आवेग आ जाएगा, वह हारा हुआ माना जाएगा । दोनों ओर से बहस प्रारम्भ हुई। घंटों बीत गए। सब शांतभाव से चर्चा कर रहे हैं । वातावरण शांत है । बहस होते होते संघर्ष का कांटा निकल गया और वे मित्र बन गए ।
श्रामण्य का सार
जैन परम्परा में क्षमायाचना की बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । दो साधुओं के बीच कोई बात हो गई । एक ने क्षमा याचना कर ली, दूसरे ने नहीं की, तो आचार्य क्षमायाचना करने वाले को अच्छा मानेंगे और क्षमायाचना न करने वाले को दोषी । 'उवसमसारं खलु सामण्णं' श्रामण्य का सार है उपशम | न इसका वाचक है |
मुनि होना, ज्ञानी होना बहुत जरूरी है। अज्ञान भयंकर होता है । मुनि सचाई को जानता है, अज्ञानी नहीं जानता ।
नमस्कार महामन्त्र में मुनि को नमस्कार किया गया है, किसी नाम विशेष वाले मुनि को नहीं, केवल ज्ञानी को ।
सिद्ध और साधु
इस नमस्कार महामन्त्र में दो ही व्यक्ति हैं - सिद्ध या साधु । ' णमो सिद्धाणं' में सिद्ध की अभिव्यक्ति है और शेष चार पदों में 'साधु' की अभिव्यक्ति है | अर्हत् भी साधु हैं । आचार्य, उपाध्याय और मुनि भी साधु ही हैं। दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो एक ही पद है- 'साधु' । अर्हत् भी साधु है और सिद्ध भी पहले साधु ही हैं । उस अवस्था के बाद ही सिद्धि होती है । इस दृष्टि से साधु पद का कितना बड़ा महत्त्व है, साधना का कितना बड़ा महत्त्व है ।
गृहस्थ क्यों नहीं ?
एक प्रश्न आता है कि कुछेक गृहस्थ भी बड़ी-बड़ी साधना करते हैं,
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जैन धर्म के साधना - सूत्र
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