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हैं तो मन स्वयं अचंचल बन जाता है, एकाग्र बन जाता है । यही साधना का रहस्य है । कायसिद्धि, वाक्सिद्धि और मनःसिद्धि- यह त्रिपुटी ही है साधना । जो इसकी साधना करता है, वह है साधु ।
... 'स्वपरकार्याणि साधयतीति साधुः'-जो अपना तथा पराया हित साधता है, वह है साधु । वही होता है-'तिन्नाणं तारयाणं ।'
यति
. चौथी कल्पना उठी- एक ऐसा वर्ग होना चाहिए, जो इद्रियों से ऊपर उठकर जीए, जो यति हो । यति का अर्थ है-इन्द्रियों के स्तर पर नहीं जीने वाला व्यक्ति, उपरति/विरति का जीवन जीने वाला साधक । वैसा साधक, जो इन्द्रियों से काम लेता है, पर उनसे विमुख रहता है । यह अत्यन्त कठोर साधना है ! आख से देखना और आंख से संयम रखना-दोनों बातें एक साथ करना, बहुत ही कठिन होता है । भोजन करना और जिह्वेन्द्रिय का संयम रखना, शब्द सुनना और उसमें प्रिय-अप्रिय न जोड़ना, बड़ा कठिन कर्म है ।
यह एक ऐसी साधना पद्धति है कि इन्द्रियों से काम लेना, पर उसमें नहीं फंसना | साधकों ने इसकी साधना का भी उत्तरोत्तर विकास किया है।
व्यक्ति अनगार बना, निर्ग्रन्थ बना, यति बना और साधु बना | सारी बातें अद्भुत हैं । आज अद्भुत नहीं लग रही हैं, पर जो इनका आदि बिन्दु था,उस समय कितना विस्मय हुआ होगा । आज हम सब इन कल्पनाओं से परिचित हो चुके हैं,इसलिए आश्चर्य नहीं होता ।।
चूहा बिल्ली से डरे, यह हम जानते हैं पर चूहा बिल्ली के सिर चढ़कर नाचे, इस तथ्य से हम परिचित नहीं हैं । एक वैज्ञानिक ने इसे भी कर दिखाया कि बिल्ली भयभीत बैठी है और चूहा उसके सिर पर चढ़ा हुआ है |
मुनि
इन सब बातों के साथ एक कल्पना और उठी कि व्यक्ति 'मुनि' बने । मुनि का अर्थ है-ज्ञानी । जो जानता है,वह होता है मुनि । न बोलना ही मुनि नहीं है । जानने वाला होता है मुनि । वह जानता भी है और आचरण भी
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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