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रहता । उनमें घर बनाने की कल्पना नहीं रहती । अनगारत्व उनका विशेष गुण बन जाता है।
निर्ग्रन्थ
कल्पना आगे बढ़ी ! एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जिसके कोई गांठ न हो, सर्वथा निर्ग्रन्थ हो । यह बड़ी कल्पना है । प्रत्येक व्यक्ति के मन में अनगिन गांठें होती हैं । ऐसी स्थिति में 'निर्ग्रन्थ' व्यक्ति की कल्पना महत्त्वपूर्ण है। महावीर का एक विशेषण ही बन गया-निग्गंथे नायपुत्रे-निग्रंथ ज्ञातपुत्र |
साधनाशील
तीसरी कल्पना हुई- ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो साधना करे, साधना में ही रहे, साधु बने । वह आत्मा की आराधना करे, आत्मा में रहे, पदार्थ से विमुख हो, आत्मा के उन्मुख हो । साधना का इतना ही अर्थ है कि साधक आत्मा से जुड़ जाए, पदार्थ से बिछुड़ जाए। उसमें 'भेदविज्ञान' की भावना जाग जाए | वह अनुभव करने लगे कि शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है । इसका सरल उपाय है- कायोत्सर्ग । महावीर की पूरी साधना को यदि एक शब्द में बताना पड़े तो वह शब्द है-कायोत्सर्ग । इस एक शब्द में पूरी साधना समा गई।
सभी मूर्छाओं की जड़ है-काया अर्थात् शरीर । मोह इसी से उत्पन्न होता है । जिसने शरीर की मूर्छा को तोड़ डाला, शरीर और आत्मा के पृथक्करण की अनुभूति प्राप्त कर ली, वह निर्मोह होने की दिशा में प्रस्थित हो गया ।
साधक को कायोत्सर्ग से तीन लाभ होते हैं । उसको मन की स्वस्थता, वाणी और काया की स्वस्थता अपने आप उपलब्ध होती है | इन तीनों में मन की स्वस्थता महत्त्वपूर्ण है । मन की स्वस्थता का अर्थ है- मन की अचंचलता | शरीर को शिथिल करना मन को शिथिल करना है | वाणी को शिथिल करना मन को शिथिल करना है । शरीर और वाणी की चंचलता है तो मन की स्थिरता कभी नहीं हो सकती । शरीर और वाणी अचंचल होते
णमो लोए सव्व साहूणं
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