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ज्ञान को इतना आत्मसात् कर लेता है कि सर्वत्र पुस्तक देखकर पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं रहती । उनमें स्मृति का विकास इतना होता है कि जो कुछ भी ज्ञान है,वह उनकी स्मृति में पूर्णरूपेण प्रतिबिम्बित रहता है । प्राचीन काल के ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत हैं ।
स्मृति का चमत्कार
उपाध्याय यशोविजयजी बनारस में थे । वहां नैयायिक परंपरा का एक अलभ्य ग्रन्थ एक ब्राह्मण विद्वान् के पास था । वह उस ग्रंथ को दे नहीं रहा था । उपाध्यायजी ने उसका पारायण करना चाहा । ब्राह्मण को समझाया, पर वह अपने आग्रह पर अडिग रहा | ज्यों-त्यों उसे प्रसन्न किया । उसने कहा-एक दिन के लिए मैं यह ग्रंथ दे सकता हूं जितना पढ़ सको, पढ़ लो दूसरे दिन उसे मुझे सौंपना होगा । उपाध्यायजी ने यह बात मान ली | उसमें सात सौ श्लोक थे । उपाध्यायजी ने एक ही दिन में उन सभी श्लोकों को कण्ठस्थ कर लिया और दूसरे ही दिन ग्रन्थ लौटा दिया । यह है स्मृति का चमत्कार ।
स्मृति की प्रखरता का एक मात्र साधन है आत्माभिमुख होना । जो आत्मा की सन्निधि से दूर चला जाता है, वह स्मृति की प्रखरता को प्राप्त नहीं कर सकता । स्मृति तब बनी रहती है जब व्यक्ति अन्तर्मुख होता है । आत्माभिमुखता से स्मृति बढ़ती चली जाती है । जब व्यक्ति आत्मा से दूर जाता है, तब वह पदार्थों में उलझ जाता है और तब श्रुत की स्मृति का ह्रास होता है।
कम्प्यूटर है मस्तिष्क
आज जो कम्प्यूटर का विकास हुआ है, वह आत्मविस्मृति की निष्पत्ति है । यह कोई बड़ा चमत्कार नहीं है। यदि व्यक्ति आत्मोन्मुख होता तो वह स्वयं कम्प्यूटर का काम कर पाता | आदमी के मस्तिष्क से बढ़कर कम्प्यूटर नहीं है।
प्राचीनकाल में विशिष्ट मुनि चौदह पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर उसका
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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