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सभी समस्याओं का समाधान है। उस आत्मविद्या का निर्वाह करना आवश्यक है । आज यदि कोई बड़ी सम्पदा है तो वह है आत्मविद्या की सम्पत्ति । यदि इसकी विस्मृति होती है तो भारत की आत्मा ही नष्ट हो जाती है। कितना बड़ा दायित्व है इस विद्या की सुरक्षा करना । आचार्य और उपाध्याय का यह गुरुतर दायित्व है । आत्मविद्या गुह्य विद्या है । 'गोप्यं पुनरपि गोप्यं - यह इसी विद्या के लिए कहा गया है। ऐसा लगता है कि 'गोप्यं गोप्यं' कहतेकहते वह पूरी विद्या ही गुप्त हो गई, लुप्त हो गई ।
योगक्षेम वर्ष का उद्देश्य
सन् १९८९ में ‘योगक्षेम वर्ष' मनाया गया । उसका मुख्य उद्देश्य यही था कि आत्मविद्या की परंपरा सुरक्षित रहे । लौकिक विद्याओं की सुरक्षा के लिए आज अनेक शिक्षण संस्थान कार्यरत हैं। उनके चरण विकासोन्मुख हैं । इन विद्याओं के ग्रन्थ प्रतिदिन प्रकाशित हो रहे हैं। लाखों-लाखों ग्रंथ सामने आ रहे हैं । प्रतिवर्ष पुस्तक - मेले लगते हैं किंतु आत्मविद्या के अध्ययनअध्यापन का कोई शिक्षण संस्थान प्रकाश में नहीं है, जो इस विद्या को आगे बढ़ाता रहे । यह सचमुच एक कमी है। जैन मनीषियों को यह चिन्ता है कि हमारी श्रुतज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न कैसे रह सकती है ?
जरूरत है उपाध्यायों की
आत्मविद्या की परंपरा भगवान् महावीर से चली । उत्तरवर्ती आचार्यों ने उसे सुरक्षित रखा और आचार्य भिक्षु उसी परंपरा को आगे बढ़ाने में लगे । वे आत्मविद्या के संवाहक आचार्य थे । उनका ध्यान आत्मविद्या पर केन्द्रित था । वे निश्चय की भाषा में बोले, इसलिए व्यवहारवादी लोगों को उसे समझने में कठिनाई का अनुभव हुआ । आचार्य भिक्षु निश्चय की भाषा जानते थे, सोचते थे और अनुभव करते थे। आज भी आत्मविद्या की परंपरा को विकसित करने की बात सोची जा रही है । इस उपक्रम को स्थायी रखने के लिए जरूरत है उपाध्यायों की । उपाध्याय पुस्तक पर निर्भर नहीं होता । वह अपने मस्तिष्क पर, कंठ पर, जीभ पर अधिक निर्भर होता है । इसका तात्पर्य है कि वह
णमो उवज्झायाणं
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