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'आसावसभावना, चारणभावना आदि ग्रन्थ आज उपलब्ध नहा ह । ग्रन्था
में उल्लिखित विद्याएं भी उन्हीं के साथ लुप्त हो गई । आज प्रश्न यह है कि वर्तमान में उबलब्ध श्रुत की सुरक्षा कैसे की जा सकती है ? आज सुरक्षा के अनेक उपकरण विकसित किए गए हैं पर वे भी पूर्ण सुरक्षा के साधन नहीं हैं ।
यदि उपाध्याय की परंपरा सुरक्षित नहीं है तो श्रुत की परंपरा भी सुरक्षित नहीं रह सकती । ‘उपाध्याय' नाम या पद से व्यामोह नहीं है । किन्तु आज ऐसे जैन श्रमण- श्रमणियों की आवश्यकता है, जो आत्मविद्या की परंपरा को चला सकें, आगे बढ़ा सकें और 'संघपुरुष चिरायु' हो के घोष के साथ 'आत्मविद्या चिरायु हो' के घोष का पुनः उच्चारण कर सकें ।
शान्ति है आत्मा की अनुभूति
गीता में कहा गया- 'अध्यात्मविद्या विद्यानां' - सभी विद्याओं में अध्यात्मविद्या श्रेष्ठ है । यह वचन सुचिन्तित और अनुभूत सत्य है । अध्यात्मविद्या को श्रेष्ठ कहने का रहस्यपूर्ण कारण है । सभी विद्याएं आत्मा की ओर नहीं ले जातीं । जैसे -जैसे व्यक्ति आत्मा से दूर होता जाता है, वैसे वैसे वह अशांति के वात्याचक्र में फंसता जाता है । आज अशान्ति अधिक क्यों है ? इसका कारण यह है कि जितनी आत्मा से दूरी बढ़ती जायेगी, उतनी ही मानसिक अशान्ति बढ़ती जाएगी । शान्ति का कारण है- आत्मा में रहना, आत्मा की अनुभूति करना । आत्मा से दूर होने का अर्थ है - पदार्थ के निकट होना । यही अशांति का कारण है । आत्मा की अनुभूति के बिना सचाई का पता नहीं चलता । जब सचाई ज्ञात नहीं होती तब अनर्थ पैदा होता है। एक अनर्थ से दूसरा अनर्थ पैदा होता ही रहता है । फिर उसे अनुताप होता है - काश ! मैं आत्मा से दूर नहीं जाता ।
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खुशी नहीं दे सका पुरस्कार
एक ठेकेदार था । उसने राजा के अनेक महल बनाए थे। वह विश्वस्त और परिश्रमी व्यक्ति था । राजा ने सोचा- इसने मेरी इतनी सेवा की है, मुझे
णमो उवज्झायाणं
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