________________
आत्म बोध की परंपरा के संवाहक
जब व्यक्ति में आत्मबोध नहीं जागता, वह स्वयं भुलावे में रहता है और दूसरों को भी भुलावे में डाल देता है । यही है मोह, सम्मोह, इल्यूजन । जिसमें अपने अस्तित्व का बोध होता है, वह कभी दूसरों को भुलावे में नहीं डालता | इस अस्तित्ववादी परम्परा तथा आत्मबोध की परम्परा के निर्वाहक होते हैं
उपाध्याय
जैन परंपरा में आचार्य और उपाध्याय दो व्यक्ति रहे हैं । उनका अपनाअपना दायित्व था । कभी-कभी ये दोनों पद एक ही व्यक्ति में समाविष्ट हो जाते । एक ही व्यक्ति आचार्य भी होता और उपाध्याय भी होता । दोनों का कार्य वह अकेला सम्पादित करता। हम आचार्य और उपाध्याय को व्यक्ति न मानकर उनकी कार्यगत मीमांसा करें । उनके कार्य दो हैं । आचार्य का कार्य है- गण को आचारनिष्ठ बनाना तथा गण की रहस्यपूर्ण नीतियों का निर्धारण करना, आत्मविद्या की परम्परा का निर्वहन करना । ये दोनों कार्य चाहे एक ही व्यक्ति संपादित करे अथवा दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति सम्पादित करें, कोई अन्तर नहीं आता । दोनों कार्य अत्यंत अपेक्षित और अनिवार्य हैं ।
प्रश्न है श्रुत की सुरक्षा का
जैन परंपरा के पास अपार ज्ञानराशि थी । उसका उचित संरक्षण न होने के कारण १०-१५ प्रतिशत भाग काल - कवलित या विस्मृत को गया, विलुप्त हो गया | अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विनष्ट हो गये । कुछेक ग्रन्थ विनष्ट कर दिए गए। उस समय अनेक विशाल ग्रन्थागार थे, शास्त्र - भंडार थे, उन्हें विद्यार्थियों ने जला डाला । साम्प्रदायिक उन्माद से ग्रस्त व्यक्तियों ने बड़े-बड़े पुस्तक भंडारों को नष्ट कर डाला । वल्लभी में ३६ हजार क्षत्रिय परिवार जैन थे । वह जैनों का प्रसिद्ध केंद्र था। वहां बड़े-बड़े शास्त्र - भंडार थे । उनमें दुर्लभ ग्रंथरन थे ! वे विनष्ट हो गए। जैन श्रमणों के प्रमाद और आलस्य के कारण भी अनेक कंठस्थ - ग्रंथ विस्मृत हो गए । नन्दी की सूची से ज्ञात होता है कि उस समय कितने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्रचलित थे । आज उनके नाम मात्र रहे हैं । ग्रन्थों की उपलब्धि नहीं है । व्यवहारभाष्य में उल्लिखित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
जैन धर्म के साधना - सूत्र
www.jainelibrary.org