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णमो उवज्झायाणं
सुप्रसिद्ध दार्शनिक डेकार्टे ने कहा- 'मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं ।' अस्तित्ववादी दार्शनिक नीत्से ने इसका खंडन किया। उन्होंने कहा- मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं, यह अधूरी बात है । इसमें केवल तर्क का ज्ञान है । हमारा अस्तित्व तर्क के आधार चलता नहीं है। उसके लिए दो बातें होनी चाहिएतर्क और अन्तर्दृष्टि | रीजन और इन्ट्यूशन- दोनों का योग होना चाहिए | यह एक परिपूर्ण दृष्टिकोण है । बाह्य जगत् में, बौद्धिक जगत् में जहां तर्क की अपेक्षा है, वहां अन्तर्ज्ञान के लिए, साक्षात्कार के लिए, अन्तर्दृष्टि, प्रातिभा ज्ञान अथवा प्रज्ञा की आवश्यकता है । प्रज्ञा और तर्क- दोनों का समन्वय होता है तब हमें ठीक बोध होता है ।
पाठक पाठ और अनयोग
आज के शिक्षा संस्थानों में तर्क का ज्ञान बहुत चल रहा है । प्राथमिक स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक तर्क का बहुत अवकाश है किंतु प्रज्ञा के लिए अवकाश नहीं है । उपाध्याय वह होता है, जो प्रातिभ ज्ञान या प्रज्ञा की परंपरा का संवहन करता है । वह आध्यात्मिक ज्ञान का संवाहक होता है । इसी आधार पर प्राचीनकाल में विद्या को दो भागों में बांटा गया- लौकिक विद्या, लोकोत्तर विद्या । उपनिषदों का वर्गीरण रहा- परा विद्या और अपरा विद्या । उपाध्याय लोकोत्तर विद्या का संवहन करता है । यदि उपाध्याय न हो तो ज्ञान की परंपरा टिक ही न पाए। उपाध्याय ज्ञान की परंपरा को चलाता है और आचार्य उसके साथ अनुयोग को जोड़कर उसे गहराई तक पहुंचा देता है । पाठक, पाठ और अनुयोग - इनका योग जरूरी है । शब्द के अर्थ
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जैन धर्म के साधना -सूत्र
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