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बड़ा दायित्व है । आचार्य स्वयं ज्ञान के सारे आचारों का सम्यक् अनुशीलन करता है और दूसरों से करवाता है । ज्ञान के आठ आचार हैं
काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तहा अनिण्हवणे य ।
वंजण अट्ठ तदुभये, अट्टविहो णाणमायारो ।। समय पर स्वाध्याय करना, विनय के साथ स्वाध्याय करना, ज्ञान को बहुमान देना, उपधान करना, ज्ञान का अपलाप न करना, सूत्र और अर्थ का सम्यक बोध- यह सब ज्ञान का आचार है । आचार्य इस आचार की परिपालना और सुरक्षा में सतत जागरूक रहता है |
दर्शन आचार
आचार का दूसरा आयाम है दर्शन । निःशंका, निष्कांक्षा ,निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना-ये दर्शन के आचार हैं । आचार्य जिनशासन के प्रति अटूट निष्ठाशील होते हैं और जनता को भी वैसा बनाते हैं । स्वयं स्थिर रहना सहज है किन्तु दूसरों को स्थिर बनाना बहुत जटिल काम है । हजारों लाखों लोगों को एक प्रकार की विचार-धारा में बनाए रखना कितना कठिन है । तेरापंथ धर्मसंघ की यह विशिष्टता है कि उसमें एक आचार्य, एक आचार और एक विचार की परम्परा प्रतिष्ठित है | एक आचार में समानता संभव हो सकती है पर विचार को एक रख पाना बहुत दुष्कर है। विचारों को बांधा नहीं जा सकता। विचार इतना चंचल और सूक्ष्म है कि उसे पकड़ पाना सहज शक्य नहीं है । विचारों का समीकरण और एकत्व बना रहे, यह आचार्य का दायित्व है। इस दिशा में आचार्य भिक्षु का और तेरापंथ की परम्परा का बहुत प्रयत्न रहा है, एक विचार की अवधारणा को बहुत महत्व दिया है। यदि आचार्य कुशल होता है तो एक आचार और एक विचार बना रहता है । यदि आचार्य समर्थ नहीं है तो न एक आचार रह सकता है, न एक विचार रह सकता है | विचार की एकता का केन्द्र बिन्दु है आचार्य ।
णमो आयरियाणं
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