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तो कैसी स्थिति बनती है ? चिकित्सा के आभाव में रोगी को अकाल मृत्यु का वरण भी करना पड़ जाता है । अनेक लोग इस भाषा में बोलते हैं-यदि समय पर सही चिकित्सा उपलब्ध होती तो व्यक्ति बच जाता । चिकित्सा नहीं मिली, जीवन से हाथ धोना पड़ा । आत्मा के क्षेत्र में भी यही बात है | कुशल चिकित्सक आचार्य मिल जाता है तो समस्या समाहित हो जाती है ।
कुशल चिकित्सक की उपलब्धि सहज नहीं है । अध्यात्म के क्षेत्र में यह समस्या अधिक जटिल है। अच्छा चिकित्सक, कुशल आचार्य मिलना दुर्लभ है, जो उपाय सुझा सके । सामान्य आदमी अपाय का अनुभव भी नहीं करता, उपाय की बात तो बहुत दूर है । शरीर से भी जटिल है आत्मा की समस्या अथवा भावात्मक समस्या । शरीर का रोग कभी-कभी होता होगा, किन्तु भावात्मक समस्या को व्यक्ति प्रतिदिन भोगता है। थोड़ी-सी प्रतिकूलता आती है, भावात्मक समस्या उभर आती है। राग, द्वेष, घृणा, भय, हीनभावना-इनमें से कोई भी शक्तिशाली बना, बीमारी पैदा हो जाएगी । एक व्यक्ति बहुत संवेदनशील है । एक भी शब्द अप्रिय सुनने को मिलता है, दिन भर तनाव से भरा रहता है और कभी-कभी कोपघर में जाकर भी सो जाता है। इस प्रकार की आत्मिक बीमारी कौन व्यक्ति नहीं भोगता? इस स्थिति में यदि उपायज्ञ आचार्य न मिले तो बीमारी से छुटकारा नहीं हो सकता ।
उपायज्ञ थे महावीर
भगवान् महावीर चण्डकौशिक सर्प के बिल के पास पधारे । वह बीमार था । यदि बीमार नहीं होता तो वह काटता नहीं । काटना उसकी बीमारी का लक्षण था । क्रोध करने वाला व्यक्ति वस्तुतः बीमार होता है । व्यक्ति यह नहीं सोच पाता-बीमारी की चिकित्सा करनी चाहिए या उसे और बढ़ाना चाहिए । एक क्रोध करने वाला, अहंकार और लोभ से ग्रस्त दयनीय होता है । हम उस पर दया नहीं करते, बीमारी को बढ़ाने का अवसर देते हैं। महावीर उपायज्ञ थे । उन्होंने देखा-चण्डकौशिक बीमार है, वह आक्रोश से आक्रांत है। इसकी बीमारी को क्रोध या शस्त्र से नहीं मिटाया जा सकता | चण्डकौशिक भयंकर रोषाग्नि उगल रहा था, दूसरी ओर महावीर करुणा की अजस्र वृष्टि
णमो आयरियाणं
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