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णमो आयरियाणं
समस्याओं का समुद्र बहुत विशाल है । उसे नौका और नाविक के बिना तरा नहीं जा सकता । अच्छी नौका न हो और नाविक न हो तो व्यक्ति बीच में ही डूब जाता है । मनुष्य ने इस अपेक्षा को कभी नहीं भुलाया । वह सदा इसके प्रति जागरूक रहा है। जरूरत है यह शरीर श्रेष्ठ नौका बने, जिससे हम समस्याओं के समुद्र को तैर सकें । आचार्य वही होता है, जो नौका को पार पहुंचाए।
अपायज्ञ : उपायज्ञ
। प्राचीनकाल में आचार्य की विशेषताओं का जो वर्गीकरण किया गया,उसे आधुनिक संदर्भ में देखने की जरूरत है । आचार्य की पहली विशेषता है- जो स्वयं आचारयुक्त है और दूसरों को आचारयुक्त बनाता है,वह आचार्य है । स्वयं आचारनिष्ठ है और दूसरों में आचार की निष्ठा पैदा करता है, वह आचार्य है । इसके लिए आवश्यक है- अपायज्ञ और उपायज्ञ होना । आचार्य को अपायज्ञ- समस्याओं को समझने वाला होना चाहिए । जिसमें समस्याओं को समझने का युग बोध नहीं होता, वह अपायज्ञ नहीं हो सकता । अपायज्ञ हुए बिना अपाय का निवारण संभव नहीं है । जो अपाय को जानता है किन्तु उपाय को नहीं जानता,वह भी समस्या का निराकरण नहीं कर सकता । अध्यात्म के क्षेत्र में आचार्य एक चिकित्सक का काम करता है । वैद्य या डाक्टर जैसे शरीर के लिए चिकित्सा का कार्य करता है, वैसे ही आत्मा के लिए आचार्य चिकित्सक का दायित्व निभाता है | यदि शरीर के संदर्भ में देखें । एक व्यक्ति बीमार है और डॉक्टर समय पर नहीं पहुंच पाता है
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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