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रूपस्थ ध्यान
रूपातीत ध्यान से पहले रूपस्थ ध्यान की अपेक्षा है । उसके बिना रूपातीत ध्यान सध नहीं पाएगा । सिद्धों का ध्यान भी रूप के साथ किया जा सकता है | रूपस्थ ध्यान का एक सुन्दर सूत्र मिलता है
चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा ।
सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं दिसंतु ॥ यह सिद्धि की साधना का सूत्र है । जो व्यक्ति सिद्धि चाहता है, अपने आपमें सिद्धि का वरण करना चाहता है । उसके लिए यह उत्कृष्ट सूत्र है।
सिद्ध की उपासना तीन रूपों में करें । पहला रूप है-एक श्वेत निर्मल ज्योति के रूप में सिद्ध की उपासना । उसका स्थल होगा ललाट । अर्द्ध चन्द्र का श्वेत निर्मल ज्योति के रूप में ध्यान । दूसरा रूप है-अरुण रंग में सिद्ध की उपासना । स्थान होगा दर्शन केन्द्र | उगते बाल सूर्य का अरुण रंग | तीसरा रूप है- नीले रंग में सिद्ध की उपासना | स्थान होगा विशुद्धि केन्द्र | समुद्र.के जल-सा नीला रंग | इन तीन रूपों में सिद्ध की उपासना की जाती है। प्राचीन मंत्र शास्त्र का अभिमत है-जो अरुण, श्वेत और नील-इन तीन रंगों की उपासना करता है, वह बहुत सारी समस्याओं से पार पा जाता है। यह सिद्ध की साकार उपासना है | इस रूप में उपासना करता हुआ साधक निवेदन करता है-चंद्र के समान निर्मल, सूर्य के समान तेजस्वी और सागर के समान गंभीर- इन तीन रूपों में मुझे सिद्धि दें।
यह सिद्धि का, सफलता का महत्त्वपूर्ण मंत्र है, सिद्ध की उपासना का महान् सूत्र है । जैन परम्परा में 'सिद्धा' बहुत बड़ा मंत्र रहा है । एक मंत्र है- ॐ णमो सिद्धम्' । इन दोनों की आराधना की जाती है । प्राचीन काल में प्रत्येक पढ़ने वाला विद्यार्थी जब पढ़ाई शुरू करता, तब सबसे पहले 'ॐ णमो सिद्धम्' मंत्र लिखता । केवल जैन ही नहीं, पुराने जितने भी लोग हैं, गुरुजी पढ़ाते समय उन्हें यह मंत्र लिखाते-'ॐ णमो सिद्धम् ।' महाराष्ट्र, गुजरात और पूरे दक्षिण में यह मंत्र सर्वत्र व्यापक बना ।
सिद्ध के मंत्र की साधना तथा सिद्ध की उपासना, सिद्धि के लिए की
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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