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को दांतों के बीच अधर में रखें । ये सारे जीभ की स्थिरता के प्रयोग हैं । जैसे ही यह स्थिरता सधती है, रूपातीत ध्यान की स्थिति निर्मित हो जाती है । इस अवस्था में हम रूपातीत ध्यान कर सकते हैं । प्रारंभ में आलंबन भी लेना होता है । वह आलंबन हो सकता है 'ओम्' अथवा 'अर्हम्' का | जीभ की स्थिरता की मुद्रा में इसका उच्चारण करें तो उच्चारण अधूरा ही रहेगा । 'ओ' भीतर रहेगा, 'म्' का उच्चारण हो पाएगा | ‘अर्ह ' अव्यक्त रहेगा, 'म्' सानुनासिक बन जाएगा । इस अवस्था में पाँच-सात मिनिट रहें, नेर्विकल्प ध्यान में पहुंचने की पृष्ठभूमि तैयार हो जाएगी ।
आवश्यक है प्रक्रिया का बोध
रूपातीत ध्यान करने के लिए एक विशेष स्थिति का निर्माण करना होता है । उसके लिए इस समग्र प्रक्रिया को समझना अपेक्षित है । निर्विकल्प होने का अर्थ है केवल चैतन्य के अनुभव में रहना । इस स्थिति में कोई विकल्प नहीं रहता, केवल चैतन्य की स्फुरणा और चैतन्य की किरणें प्रस्फुटित होती हैं । वस्तुतः इस स्थिति का निर्माण करना बहुत कठिन है । यदि हम इस निर्विकल्प स्थिति के निर्माण की प्रक्रिया को समझ लें तो हमारी उपासना अच्छी होगी । हम उपासना की समस्या से परिचित हैं । प्रत्येक व्यक्ति की यह समस्या है-जब-जब उपासना करता है,तब तब ‘णमो अरहंताणं' ‘णमो सिद्धाणं' का उच्चारण तो होता है किंतु मन दूसरी जगह अटक जाता है । मन का यह अटकाव या भटकाव मिटाने के लिए उपासना की प्रक्रिया का बोध आवश्यक है । श्वास को मंद करने की साधना अशरीर होने की साधना इसीलिए है । यह ठीक कहा गया- 'प्रभु बनकर के ही हम प्रभु की पूजा कर सकते हैं ।' अशरीर की उपासना करनी है तो अशरीर होना पड़ेगा । अवाणी की उपासना करनी है तो वाणी को विराम देना होगा, अमन होना होगा । अशरीर, अवाक् और अमन- इस स्थिति का निर्माण हो, तभी रूपातीत ध्यान किया जा सकता है।
णमो सिद्धाणं
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