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साध्वाचार के सूत्र
साधु, बहुश्रुत सारूपिक बहुश्रुत पश्चात्कृत श्रमणोपासक, सम्यक् भावित चैत्य अर्हत्-सिद्ध इस प्रकार क्रमशः के अभाव में दूसरे के पास
आलोचना करना निहित है।' प्रश्न ६. आलोचना करने से क्या लाभ होता है? उत्तर-आलोचना से जीव अनन्त संसार को बढ़ाने वाले, मोक्ष मार्ग में विघ्न
उत्पन्न करने वाले माया, निदान तथा मिथ्यादर्शन शल्य को निकाल फेंकता है और ऋजुभाव को प्राप्त होता है। वह अमायी होता है, इसलिए वह स्त्रीवेद और नपुंसक वेद कर्म का बंध नहीं करता और यदि
वे पहले बंधे हुए हो तो उनका क्षय कर देता है। प्रश्न ७. आलोचना ग्रहण करते समय कौन-कौन से दोष वर्जनीय है ? उत्तर-१. नृत्य-अंगों को नचाते हुए आलोचना करना।
२. वल-शरीर को मोड़ते हुए आलोचना करना। ३. चल-अंगों को चलित करते हुए आलोचना करना। ४. भाषा-असंयम तथा गृहस्थ की भाषा में आलोचना करना। ५. मूक मूक स्वर से 'गुणगुण' करते हुए आलोचना करना। ६. ढड्डर-उच्च स्वर से आलोचना करना। इन दोषों का वर्जन करते हुए गुरु के समझ संसृष्ट-असंसृष्ट हाथ, पात्र
आदि संबंधि तथा दाता संबंधी आलोचना करनी चाहिए। आहार आदि जिस रूप में ग्रहण किया है, उसी रूप में क्रमशः गुरु को निवेदन करना
चाहिए। प्रश्न ८. आलोचना किन-किन कारणों से नहीं करता? उत्तर-मेरी कीर्ति कम होगी, मेरा यश कम होगा, मेरा पूजा सत्कार कम होगा।
मैंने अकरणीय किया है, मैं अकरणीय कर रहा हूं और मैं अकरणीय
करूंगा।' प्रश्न ६. आलोचना कौन करता है ? उत्तर-जो दस गुणों से युक्त अनगार अपने दोषों की आलोचना करता है।
१. जाति सम्पन्न-उच्च जाति वला। १. व्यवहार १/३
३. ओघनियुक्ति ५१६,५१७ २. उत्तरा. २६/६
४. स्थानांग ३/३।३३८,३४०
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