________________
साध्वाचार के सूत्र ग्रैवेयक (१३ से २१वें स्वर्ग तक) देवों के सुखों और बारह मास का दीक्षित साधु अनुत्तरविमान (२२ से २६ वें स्वर्ग तक) देवों के सुखों का
व्यतिक्रमण करता है। प्रश्न २३०. साधुओं को धर्मोपदेश क्या सोचकर करना चाहिए? उत्तर-दयाभाव से प्रेरित होकर चतुर्गतिरूप संसार में रहने वाले प्राणियों को तारने
के लिए साधुओं को धर्मोपदेश करना चाहिए। लेकिन वह उपदेश श्रोताओं को १. अहिंसा, २. विरति, ३. उपशम, ४. निर्वाण, ५. शौच, ६. आर्जव, ७. मार्दव, ८. लाघव-इन आठ गुणों की तरफ खींचनेवाला होना चाहिए तथा उस उपदेश से खुद को एवं सुननेवालों को किसी भी
प्रकार की पीड़ा नहीं होनी चाहिए।' प्रश्न २३१. संभोग किसे कहते है ? उत्तर-समान समाचारी वाले साधुओं के सम्मिलित आहार आदि व्यवहार को
संभोग कहते हैं। प्रश्न २३२. संभोग के कितने प्रकार है ? उत्तर-संभोग के बारह प्रकार है।'
१. उद्गम, उत्पादना एवं एषणा के दोषों से रहित वस्त्र-पात्रादि उपधि को सांभोगिक साधुओं के साथ प्राप्त करना उपधिसंभोग है। २. पास में आये हुए सांभोगिक अथवा अन्य सांभोगिक साधु को विधिपूर्वक शास्त्र पढ़ाना तथा दूसरे के पास जाकर स्वयं पढ़ना 'श्रुतसंभोग'
३. शुद्ध आहार-पानी का सेवन करना एवं परस्पर लेना-देना भक्त-पान संभोग है। ४. सांभोगिक अथवा अन्य सांभोगिक साधुओं के साथ वन्दनाआलोचना आदि करना अंजलि-प्रग्रहसंभोग है। ५. सांभोगिक साधुओं द्वारा सांभोगिक अथवा कारणवश अन्य सांभोगिक का शिष्यादि देना दानसंभोग है। ६. शय्या, उपधि, आहार, शिष्यप्रदान अथवा स्वाध्याय आदि के लिये सांभोगिक साधु को निमंत्रण देना निमंत्रण संभोग है। ७. ज्येष्ठ साधु को आता देखकर आसन से उठना अभ्युत्थानसंभोग है।
१. आचारांग ६/५ के आधार
२. समवाओ १२/२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org