SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधु प्रकरण उत्तर-भवी । १ प्रश्न २०७. क्या उपर्युक्त संयतों का संहरण हो सकता है ? उत्तर - हां ! पूर्व जन्म की शत्रुता से या अन्य किसी कारणवश देव आदि साधुओं को उठाकर ले जाते हैं किन्तु ये सात संहरण के अयोग्य माने गए हैं - १. श्रमणी (शुद्धसाध्वी) २. अवेदअवस्था में विद्यमान साधु ३. परिहारविशुद्धसंयत ४. पुलाक निर्ग्रन्थ ५ अप्रमत्त साधु ६. चौदह पूर्वधर ७. आहारक लब्धिसंपन्न साधु । प्रश्न २०८. आराधक - विराधक साधु कौन होते हैं ? उत्तर - जो अपने ज्ञान - दर्शन - चारित्र की सम्यग् आराधना करते हैं, उनमें अतिचार-दोष नहीं लगाते अथवा दोष लग जाने पर सरल हृदय से उन दोषों की आलोचना कर समाधिमरण को प्राप्त होते हैं, वे आराधक कहलाते हैं। आराधना न करनेवाले विराधक कहलाते हैं । प्रश्न २०६. श्रमण धर्म किसे कहते हैं ? उत्तर- श्रमण का अर्थ साधु है एवं साधुओं के लिये आचरण-योग्य धर्म श्रमणधर्म कहलाता हैं । प्रश्न २१०. दस श्रमणधर्म कौन-कौन से हैं ? उत्तर - श्रमण धर्म दस है - १. क्षान्ति २ मुक्ति ३. आर्जव ४. मार्दव ५. लाघव ६. सत्य ७. संयम ८. तप ९ त्याग १०. ब्रह्मचर्य । ४५ प्रश्न २११. साधु के तीन मनोरथ कौन-कौन से है ? उनका चिन्तन करने से क्या लाभ होता है। उत्तर - आगम में साधुओं के तीन मनोरथ वर्णित हैं । ४ पहला मनोरथ है - साधु चिंतन करे कि वह शुभ समय कब आयेगा, जब मैं अल्प या बहुत श्रुतका अध्ययन करूंगा । दूसरा मनोरथ है - साधु यह चिंतन करे कि वह शुभ दिन कब आयेगा, जब मैं एकलविहार भिक्षु प्रतिमा अंगीकार करके विचरूंगा। तीसरा मनोरथ है – साधु यह चिंतन करे कि वह शुभ समय कब आयेगा, जब मैं अंतिम संलेखना के द्वारा आहार -पानी का त्याग कर पादोपगमन मरण स्वीकार कर जीवन मरण की इच्छा न करता हुआ विचरूंगा । - इन तीन मनोरथों का चिंतन करता हुआ साधु महानिर्जरा एवं महापर्यवसान ( प्रशस्त - अंत) वाला होता है । १. २१ द्वार २. भगवती ८ / १० / ४५१-४६६ Jain Education International ३. स्थानांग १० /१६ ४. स्थानांग ३ / ४६६-४६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003051
Book TitleSadhwachar ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnishkumarmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy