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साध्वाचार के सूत्र उनकी सेवा करते हैं और एक आचार्य के रूप में रहते हैं। उनके पास आठों मुनि आलोचना-प्रत्याख्यान आदि करते हैं एवं उपदेश सुनते हैं। तपस्वी मुनि पारिहारिक, सेवारत मुनि अनुपारिहारिक एवं आचार्य कल्पस्थित कहलाते हैं अथवा तपस्या करने वाले निर्विश्यमान तथा तपस्या से निवृत्त होकर सेवा करने वाले निर्विष्टकायिक कहे जाते हैं। उनकी तपस्या का क्रम इस प्रकार है-ग्रीष्मकाल में जघन्य एकान्तर, मध्यम बेले-बेले एवं उत्कृष्ट तेले-तेले तप। शीतकाल में जघन्य बेलेबेले, मध्यम तेले-तेले और उत्कृष्ट चोले-चोले तप। चातुर्मास में जघन्य तेले-तेले, मध्यम चोले-चोले तथा उत्कृष्ट पंचोले-पंचोले तप। पारणे में सदा आयंबिल करते हैं। तीसरे प्रहर में भिक्षार्थ जाते हैं, संसृष्ट-असंसृष्ट पिण्डैषणाओं को छोड़कर आहार-पानी ग्रहण करते हैं। सेवा करने वाले साधु एवं आचार्य प्रतिदिन आयंबिल करते हैं। अधिक तपस्या नहीं करते। इस प्रकार छह मास व्यतीत होने पर सेवारत साधु तपस्या करते हैं, तपस्वी सेवा करते हैं और आचार्य-आचार्य के रूप में ही रहते हैं। यह क्रम भी छह मास तक चलता है। बारह मास पूर्ण होने के बाद फिर छह मास तक आचार्य तपस्या करते हैं, सात साधु उनकी सेवा करते हैं एवं एक को आचार्यपद पर स्थापित किया जाता है।' इस प्रकार अठारह मास में परिहार तप का कल्प पूरा होता है। कल्प पूरा होने पर कई साधु तो इसी कल्प का पुनः-पुनः आरंभ करते हैं। कई जिनकल्प स्वीकार कर लेते हैं एवं कई पुनः संघ में आ जाते हैं। गण में आने वाले इत्वरिक एवं जिनकल्प व पुनः इसी कल्प को ग्रहण करने वाले यावत्कथिक कहलाते हैं। इत्वरिकों को देवादि द्वारा उपसर्ग तथा असह्य
रोगादि नहीं होते, यावत्कथिकों को हो सकते हैं। प्रश्न १४०. परिहारविशुद्धि चारित्र में कितने ज्ञान पाये जाते हैं? उत्तर-प्रथम चार ज्ञान–१. मतिज्ञान २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मनःपर्यव
ज्ञान । प्रश्न १४१. परिहारविशुद्धि चारित्र में लेश्याएं कितनी? उत्तर-तीन शुभ-१. तेजोलेश्या २. पद्म लेश्या ३. शुक्ल लेश्या।'
१. उत्तरा. २८/टि. २६ २. (क) बृहत्कल्प ६।१८ सूत्र ६४६३ से
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(ख) प्रवचनसारोद्धार ६६ ३. भगवती २५/७/४६६ ३. भगवती २५/७/५०२
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