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साध्वाचार के सूत्र २. दूतीपिण्ड-दूत की तरह गुप्त या प्रकट सन्देश पहुंचाकर आहार आदि
लेना। ३. निमित्तपिण्ड-भविष्य के शुभाशुभ निमित्त बतलाकर आहार आदि
लेना। ४. आजीविकापिण्ड-स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से अपनी जाति-कुल आदि
का गौरव प्रकट कर आहार आदि लेना। ५. वनीपकपिण्ड-भिखारी की तरह दीनता दिखाकर आहार आदि
लेना। ६. चिकित्सापिण्ड–वैद्य की तरह औषधि बताकर आहार आदि लेना। ७. क्रोधपिण्ड-क्रोध कर या श्राप आदि का भय दिखाकर भिक्षा लेना। ८. मानपिण्ड-अपने को तेजस्वी, प्रतापी एवं बहुश्रुत बताते हुए
सेवइयामुनिवत्' अपना प्रभाव जमाकर भिक्षा लेना। ९. मायापिण्ड-वंचना-छलना करके भिक्षा लेना। १०. लोभपिण्ड-आहार के विषय में लोभ करना यथा गोचरी जाते समय लोलुपतावश यह निश्चय करके निकलना कि आज अमुक वस्तु खाऊंगा। अपनी धारी हुई वस्तु सहज में न मिलने पर उसके लिए घरघर भटकना। ११. पूर्वपश्चात् संस्तवपिण्ड-भिक्षा लेने से पहले या पीछे दाता की
प्रशंसा करना। १२. विद्याप्रयोग-विद्या का प्रयोग करके भिक्षा लेना। १३. मंत्रप्रयोग-वशीकरण, सम्मोहन आदि मंत्र का प्रयोग करके भिक्षा
लेना। १४. चूर्णप्रयोग-चूर्ण का प्रयोग करके भिक्षा लेना। अदृश्य करने वाले
अंजन आदि को चूर्ण कहते हैं। १५. योगप्रयोग–पादलेप जल पर अधर चलने का औषधीय प्रयोग आदि
सिद्धियां बताकर भिक्षा लेना। १६. मूलकर्मप्रयोग-मूलकर्म करके आहारादि लेना। गर्भ स्तंभ, गर्भाधान ' या गर्भपात आदि सावध कार्यों को मूल कर्म कहते हैं।'
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१. प्रवचनसारोद्धार गा. ५६६ से ५६७, द्वार ६७
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