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प्रवचन-माता प्रकरण
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४. मिश्रजात–अपने लिए और साधु के लिए एक साथ पकाया हुआ
आहारादि लेना। ५. स्थापना कुछ समय के लिए केवल साधु के निमित्त अलग रखा
हुआ आहारादि लेना। ६. प्राभृतिका साधु को विशिष्ट आहार बहराने की भावना से मेहमानों
को आगे-पीछे करके बनाया हुआ आहारादि लेना। ७. प्रादुष्करण-अंधेरे में दीप आदि जलाकर दिया हुआ आहार आदि लेना। ८. क्रीत–साधु के लिए खरीदकर लाया आहार आदि लेना। ९. प्रामित्यक-साधु के लिए उधार लिया हुआ आहार आदि लेना। .१०. परिवर्तित–साधु के लिए अदला-बदली करके लाया हुआ आहार
आदि लेना। ११. अभ्याहृत–साधु के लिए सामने से लाया हुआ आहार आदि लेना। १२. उद्भिन्न-हिंसा की संभावना हो, ऐसी कुप्पी या जल-कुंभ, चक्की, पीठ, लोढा, मिट्टी के लेप, लाख आदि द्रव्यों से छाए हुए पदार्थों को उघाड़कर दिया जाने वाला आहार आदि लेना। प्रतिदिन न खुलने वाला दरवाजा खोल कर देना। १३. मालापहृत-ऊपर, नीचे या तिरछे स्थान में (जहां आसानी से हाथ
नहीं पहंच सके) पंजों पर खड़े होकर या निःसरणी आदि के सहारे से उतारकर दिया आहार (अजयणा की संभावना हो तो) आदि लेना। १४. आच्छेद्य-निर्बल व्यक्ति से छीनकर दिया हुआ आहार आदि
लेना। १५. अनिसृष्ट-उस वस्तु को, जिसके एक से अधिक मालिक हों,
सबकी अनुमति के बिना लेना। १६. अध्यवपूरक अपने लिए बन रहे भोजन को साधुओं के आगमन
का संवाद सुनकर, गृहस्थ द्वारा अधिक बनाए, उस आहार आदि को
लेना। प्रश्न २०. उत्पादन का अर्थ बताते हुए उनके सोलह दोष कौन से है? उत्तर-आहार की प्राप्ति में जो दोष होते हैं उन्हें उत्पादन दोष कहा
जाता है। ये दोष साधु से संबंधित है। १. धात्रीपिण्ड-धाय की तरह बच्चों को खिलाकर गृहस्थ से आहार
आदि लेना।
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