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कल्प प्रकरण
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चाहते, इसलिए इस सबका वर्जन करते हैं। ११. भिक्षाचर्या के लिए तीसरे प्रहर में जाते हैं। १२. सात पिडैषणाओं में से प्रथम दो को छोड़कर शेष पांच एषणाओं से अलेपकृत भक्त-पान लेते हैं। १३. मल-भेद आदि दोष उत्पन्न होने की संभावना के कारण वे आचामाम्ल नहीं करते। वे मासिकी आदि भिक्षु प्रतिमा तथा भद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा आदि प्रतिमाएं स्वीकार नहीं करते। १४. जहां मासकल्प करते हैं, वहां उस गांव या नगर को छह भागों में विभक्त कर, प्रतिदिन एक-एक विभाग में भिक्षा के लिए जाते हैं। १५. वे एक ही वसति में सात (जिनकल्पिकों) से अधिक नहीं रहते। वे एक साथ रहते हुए भी परस्पर संभाषण नहीं करते। भिक्षा के लिए एक ही वीथि में दो नहीं जाते। १६. क्षेत्र जिनकल्प मुनि का जन्म और कल्पग्रहण कर्मभूमि में ही होता है। देवादि द्वारा संहरण किए जाने पर वे अकर्मभूमि में भी प्राप्त हो सकते हैं। १७. काल-अवसर्पिणी काल में उत्पन्न हो तो उनका जन्म तीसरे-चौथे आरे में होता है। और जिनकल्प का स्वीकार तीसरे, चौथे और पांचवें में भी हो सकता है। यदि उत्सर्पिणी काल में उत्पन्न हो तो दूसरे, तीसरे
और चौथे आरे में जन्म लेते है और जिनकल्प का स्वीकार तीसरे और चौथे आरे में ही करते है। १८. चारित्र-सामायिक अथवा छेदोपस्थापनीय संयम में वर्तमान मुनि जिनकल्प स्वीकार करते हैं। उसके स्वीकार के पश्चात् वे सूक्ष्मसंपराय
आदि चारित्र में भी जा सकते हैं। १६. तीर्थ-वे नियमतः तीर्थ में ही होते हैं। २०. पर्याय जघन्यतः उनतीस वर्ष की अवस्था में (6 गृहवास के और २० श्रमण पर्याय के) और उत्कृष्टतः गृहस्थ और साधु-पर्याय की कुछ न्यून करोड़ पूर्व में इस कल्प को ग्रहण करते हैं। २१. आगम-जिनकल्प स्वीकार करने के बाद वे नए श्रुत का अध्ययन नहीं करते, किन्तु चित्त-विक्षेप से बचने के लिए पहले पढ़े हुए श्रुत का स्वाध्याय करते हैं।
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