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साध्वाचार के सूत्र २२. वेद-स्त्रीवेद के अतिरिक्त पुरुषवेद तथा असंक्लिष्ट नपुंसकवेद वाले व्यक्ति इसे स्वीकार करते है। स्वीकार करने के बाद वे सवेद या अवेद भी हो सकते है। यहां अवेद का तात्पर्य उपशांत वेद से है। क्योंकि वे क्षपकश्रेणी नहीं ले सकते, यहां अवेद का तात्पर्य उपशांत वेद से है। क्योंकि वे क्षपकश्रेणी नहीं ले सकते, उपशम श्रेणी लेते है। उन्हें उस भव में केवलज्ञान नहीं होता। २३. कल्प-वे दोनों कल्प-स्थित कल्प अथवा अस्थित कल्प वाले होते
२४. लिंग-कल्प स्वीकार करते समय वे नियमतः द्रव्य और भाव-दोनों लिंगों से युक्त होते है। आगे भावलिंग तो निश्चय ही होता है। द्रव्यलिंग जीर्ण या चोरों द्वारा अपहत हो जाने पर हो भी सकता है और नहीं भी। २५. लेश्या-उनमें कल्प स्वीकार के समय तीन प्रशस्त लेश्याएं (तैजस, पद्य और शुक्ल) होती है। बाद में उनमें छहों लेश्याएं हो सकती हैं, किन्तु वे अप्रशस्त लेश्याओं में बहुत समय तक नहीं रहते और वे अप्रशस्त लेश्याएं अति संक्लिष्ट नहीं होती। २६. ध्यान-वे प्रवर्द्धमान धर्म्यध्यान में कल्प का स्वीकरण करते हैं, किन्तु बाद में उनमें आर्त-रौद्रध्यान की सद्भावना भी हो सकती है। उनमें कुशल परिणामों की उद्धामता रहती है, अतः ये आर्त-रौद्र ध्यान भी प्रायः निरनुबंध होते हैं। २७. गणना–एक समय में इस कल्प को स्वीकार करने वालों की उत्कृष्ट संख्या शतपृथक्त्व (६००) और पूर्व स्वीकृत के अनुसार यह संख्या सहस्रपृथक्त्व (६०००) होती है। पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्कृष्टतः इतने ही जिनकल्पी प्राप्त हो सकते हैं। २८. अभिग्रह-वे अल्पकालिक कोई भी अभिग्रह स्वीकार नहीं करते। उनके जिनकल्प अभिग्रह जीवन पर्यन्त होता है। उसमें गोचर आदि प्रतिनियत व निरपवाद होते हैं, अतः उनके लिए जिनकल्प का पालन ही परम विशुद्धि का स्थान है। २६. प्रव्रज्या-वे किसी को दीक्षित नहीं करते, किसी को मुंड नहीं करते। यदि ये जान जाए कि अमुक व्यक्ति अवश्य ही दीक्षा लेगा, तो वे उसे उपदेश देते हैं और उसे दीक्षा ग्रहण करने के लिए संविग्न गीतार्थ साधु के पास भेज देते हैं।
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