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साध्वाचार के सूत्र
उपसर्ग उत्पन्न होते हैं, उन सबको वे समभाव से सहन करते हैं। ४. आतंक रोग या आतंक उत्पन्न होने पर वे उन्हें समभाव से सहन करते हैं। ५. वेदना-उनके दो प्रकार की वेदनाएं होती हैं-१. आभ्युपगमिकीलुंचन, आतापना, तपस्या आदि करने से उत्पन्न वेदना। २.
औपगमिकी अवस्था से उत्पन्न तथा कर्मों के उदय से उत्पन्न वेदना। ६. कतिजन–वे अकेले ही होते हैं। ७. स्थंडिल-वे उच्चार और प्रस्रवण का उत्सर्ग विजन तथा जहां लोग न देखते हों, ऐसे स्थान में करते हैं। वे कृतकार्य होने पर (हेमन्त ऋतु के चले जाने पर) उसी स्थंडिल में वस्त्रों का परिष्ठापन कर देते हैं। अल्पभोजी और रूक्षभोजी होने के कारण उनके मल बहुत थोड़ा बंधा हुआ होता है, इसलिए उन्हें निर्लेपन (शुचि लेने) की आवश्यकता नहीं होती। बहुदिवसीय उपसर्ग प्राप्त होने पर भी वे अस्थंडिल में मल-मूत्र का उत्सर्ग नहीं करते। ८. वसति–वे जैसा स्थान मिले वैसे में भी ठहर जाते हैं। वे साधु के लिए लीपी-पुती वसति में नहीं ठहरते। बिलों को घूल आदि से नहीं ढंकते, पशुओं द्वारा खाए जाने पर या तोड़े जाने पर भी वसति की रक्षा के लिए पशुओं का निवारण नहीं करते; द्वार बन्द नहीं करते; अर्गला नहीं लगाते। ६. उनके द्वारा वसति की याचना करने पर यदि गृहस्वामी पूछे कि आप यहां कितने समय तक रहेंगे? इस जगह आपको मूल-मूत्र का त्याग करना है, यहां नहीं करना है। यहां बैठे, यहां न बैठे। इन निर्दिष्ट तृणफलकों का उपयोग करें, इनका न करें। गाय आदि पशुओं की देखभाल करें, मकान की अपेक्षा न करें, उसकी सार-संभाल करते रहें तथा इसी प्रकार के अन्य नियंत्रणों की बातें कहे तो जिनकल्पिक मुनि ऐसे स्थान में कभी न रहे। १०. जिस वसति में बलि दी जाती हो, दीपक जलता हो, अग्नि आदि का प्रकाश हो तथा गृहस्वामी कहें कि मकान का भी थोड़ा ध्यान रखें या वह पूछे कि आप इस मकान में कितने व्यक्ति रहेंगे? ऐसे स्थान में भी वे नहीं रहते। वे दूसरे के मन में सूक्ष्म अप्रीति भी उत्पन्न करना नहीं
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