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कल्प प्रकरण
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प्रश्न ८. जिनकल्प का क्या अर्थ है ? उत्तर-जिन अर्थात् गच्छ से अलग होकर विचरने वाले। साधुओं का कठिन
आचार जिनकल्प कहलाता है। इसे धारण करने वाले प्रायः आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर एवं गणावच्छेदक होते हैं। उन्हें उक्त कल्प धारण करने से पूर्व अपनी आत्मा को इन पांच तुलाओं से तोलना चाहिए१. तप-तुला क्षुधा पर ऐसा नियंत्रण कर लेना कि देवादि द्वारा दिए गए उपसर्गों के कारण यदि छहः मास तक अन्न-पानी न मिले तो भी मन में खिन्नता न हो।
२. सत्त्व-तुला-उपाश्रय, उपाश्रय के बाहर, चौक, शून्यघर एवं श्मशान-इन स्थानों में रात के समय एकाकी कायोत्सर्ग करके भी भयभीत न हो, अभ्यास द्वारा ऐसा सत्त्व प्राप्त कर लेना।
३. सूत्र-तुला–शास्त्रों को अपने नाम की तरह इस प्रकार याद कर लेना कि उनकी आवृत्ति के अनुसार रात या दिन में उच्छ्वास-प्राण-स्तोकलव-मुहूर्त आदि का ठीक-ठीक ज्ञान किया जा सके। ४. एकत्व-तुला-अपने गण के साधुओं से (आलाप-संलाप-सूत्रार्थ पूछना या बताना, सुख-दुःख पूछना या कहना आदि-आदि) बाह्यसंबंधों का विच्छेद करते हुए अपने शरीर-उपधि को भी आत्मा से भिन्न मानकर 'मैं अकेला हूं' ऐसा अनुभव कर लेना। ५. बल-तुला-अपने शारीरिक एवं मानसिक बल को तोल लेना। दूसरे साधुओं की अपेक्षा जिनकल्प धारनेवालों का शारीरिक-मानसिक बल बहुत ज्यादा होना चाहिए ताकि उपसर्गों के समय विचलित होने का
अवसर न आए। प्रश्न ६. जिन कल्पिक मुनियों की चर्या क्या है? उत्तर- १. श्रुत-जिनकल्पी जघन्यतः प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व की तीसरी
आचार वस्तु के ज्ञाता तथा उत्कृष्टतः अपूर्ण दशपूर्वधर होते हैं। संपूर्ण दशपूर्वधर होते है जिनकल्प अवस्था स्वीकार नहीं करते। २. संहनन-वे वज्रऋषभनाराच संहनन वाले होते हैं। ३. उपसर्ग–अनेक उपसर्ग हों ही, ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु जो भी
१.स्थानांग सू. १०३/टि. ३६
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