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साध्वाचार के सूत्र
अभ्युत्थान-वंदना आदि करना कृतिकर्मकल्प है। ६. व्रतकल्प-महाव्रतों का विधिपूर्वक पालन करना व्रतकल्प है। ७. ज्येष्ठकल्प-ज्ञान-दर्शनचारित्र में बड़े को ज्येष्ठ कहते हैं। ज्येष्ठ के विषय में बनाये गये विधिविधान ज्येष्ठकल्प कहलाते हैं। ८. प्रतिक्रमणकल्प-कृत पापों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। नियमित रूप से दोनों वक्त प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमणकल्प है। ९. मासकल्प चातुर्मास या किसी दूसरे विशेष कारण के बिना एक स्थान में एक मास से अधिक न ठहरना मासकल्प है।
१०. पर्युषणाकल्प-चातुर्मास में एक ही स्थान पर रहना पर्युषणाकल्प है।' प्रश्न ५. क्या ये कल्प चौबीस ही तीर्थंकर के समय के साधु-साध्वियों के
लिए अवश्य पालनीय हैं? उत्तर-प्रथम व अंतिम तीर्थंकरों के साधु-साध्वियों के लिए १० कल्प अवश्य
पालनीय हैं। मध्य के २२ तीर्थंकरों के लिए-(१) शय्यातरपिण्ड (२) कृतिकर्म (३) व्रत (४) ज्येष्ठ कल्प अवश्य पालनीय हैं, शेष ६ कल्प
का पालन जरूरी नहीं है। महाविदेह के लिए भी इसी प्रकार है। प्रश्न ६. अस्थितकल्प का क्या अर्थ है ? उत्तर-उपर्युक्त दस कल्पों में से-१. शय्यातरपिण्डकल्प २. कृतिकर्मकल्प ३.
व्रतकल्प ४. ज्येष्ठकल्प-इन चारों को तो नियमित रूप से पालना एवं शेष छहों को अनवस्थित रूप से (आवश्यकता होने पर) पालना अस्थितकल्प है। इस कल्प का अनुसरण करने वाले मुनि अस्थितकल्पिक कहलाते हैं। ये भरत-ऐरावत में बाईस तीर्थंकरों के समय होते हैं एवं
महाविदेह क्षेत्र में सदा रहते हैं। प्रश्न ७. स्थविरकल्प किसे कहते हैं? उत्तर-गच्छ में रहने वाले साधुओं के आचार को स्थविरकल्प कहते हैं। सत्रह
प्रकार के संयम का पालन, तप एवं प्रवचन को दीपाना, शिष्यों में ज्ञानदर्शन-चारित्र की वृद्धि करना एवं जंघाबल क्षीण होने पर वसति, आहार
और उपधि के दोषों का परिहार करते हुए एक ही स्थान में स्थिरवासी होकर रहना आदि-आदि स्थविरकल्प की विधि है। उक्त विधि के अनुसार संयम पालने वाले साधु स्थविरकल्पिक कहलाते हैं।
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४. बृहत्कल्प ६/२०/६४८५
१-२. स्थानां. सू. १०३/टि. ३६ ३. बृहत्कल्प ६/२०/६३६१
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