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शंका न करना । २. पर - दर्शन की विशेष - ऋद्धि देखकर उसकी आकांक्षा न करना। ३. धर्म क्रिया के फलों में संदेह न करना । ४. अनेक मतमतान्तरों के विवादास्पद विचारों को सुनकर अपनी श्रद्धा को डावांडोल न करना। ५. गुणिजनों (सम्यग्दृष्टियों) का गुणगान करना । ६. धर्म में अस्थिर व्यक्ति को उपदेशादि द्वारा स्थिर करना । ७. स्वधर्मी - बन्धुओं के प्रति वत्सलभाव रखना एवं उन्हें धार्मिक सहायता देना । ८. सर्वज्ञभाषित धर्म की (प्रचार आदि द्वारा) प्रभावना करना ।
प्रश्न २२. चारित्राचार क्या है ? उसकी आराधना कैसे होती है ?
गण प्रकरण
उत्तर - ज्ञान एवं श्रद्धापूर्वक सर्वसावद्ययोग का त्याग करना चारित्र है । चारित्र की आराधना करना चारित्राचार है। इसकी आराधना पांच समिति, तीन गुप्तिरूप अष्ट प्रवचन - माता का विधिपूर्वक पालन करने से होती है । ' प्रश्न २३. तपाचार किसे कहते है ?
उत्तर- इच्छा निरोध रूप अनशन आदि बारह प्रकार के तप का सेवन करना तपाचार है ।
प्रश्न २४. वीर्याचार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर - अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए धर्म कार्यों में अर्थात् ज्ञान-दर्शनचारित्र-तप की आराधना में मन-वचन-काया द्वारा प्रवृत्ति करना वीर्याचार
है ।
प्रश्न २५. आचार्य के छत्तीस गुण कौन-कौन से हैं?
उत्तर- आचार्य के छत्तीस गुण इस प्रकार हैं-पांच इन्द्रियों का निग्रह, नवबाड़ सहित ब्रह्मचर्य का पालन, चार कषायों ( क्रोध - मान-माया - लोभ) का त्याग, पांच महाव्रतों का पालन, पांच आचारों का अनुशीलन एवं अष्ट प्रवचन-माता (पांच समिति - तीन गुप्ति) का आराधन, गुणसम्पन्न आचार्य इन छत्तीस नियमों के पालन में पूरे सजग रहते हैं ।
प्रश्न २६. आचार्य की ऋद्धि कितने प्रकार की है ? समझाए ?
उत्तर - तीन प्रकार की है५ - १. ज्ञानऋद्धि २. दर्शनऋद्धि ३. चारित्र - ऋद्धि ।
प्रश्न २७. क्या सभी आचार्य एक समान होते हैं ?
उत्तर - नहीं हो सकते । गुण, बुद्धि एवं प्रभाव की न्यूनाधिकता की दृष्टि से आचार्य अनेक प्रकार के होते हैं ।
१. स्थानां. ५/२/१४७ टि. ६४ २- ३. स्थानां. ५/२/१४७ टि. ६४
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४. अमृत कलश, भाग-३ ५. स्थानां. ३/४/५०४
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