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________________ महाप्रज्ञ-दर्शन आदमी बीमार क्यों होता है। एक डाक्टर कहेगा कि जर्स (कीटाणुओं) के कारण होता है। रोग-निरोधक शक्ति कम हो जाती है, इसलिए बीमार होता है। एक आयुर्वेदिक चिकित्सक कहेगा कि वात, पित्त और कफ की गड़बड़ी से बीमार होता है। किंतु अध्यात्म की साधना करने वाला व्यक्ति इन दोनों बातों को स्वीकार नहीं करेगा। उसका उत्तर होगा कि प्राण शक्ति में असंतुलन होता है इसलिए मनुष्य बीमार होता है। यदि प्राण शक्ति का संतुलन बना रहे, तो आदमी बीमार नहीं हो सकता। असंतुलन ही मनुष्य को बीमार बना रहा है। कहीं प्राण अधिक हो गया है कहीं कम हो गया है। संतुलन बिगड़ गया। पूरे शरीर में प्राण-धारा का एक संतुलन होना चाहिए। शरीर में चित्त का प्रवाह संतुलित रहना चाहिए। वह संतुलन बिगड़ा और आदमी बीमार बन गया। दर्द होता है, शरीर निकम्मा हो जाता है, काम करने की शक्ति किसी अवयव की कम हो जाती है, पीड़ा होती है, वेदना होती है। प्रेक्षा करने वाला पूरे शरीर को देखता है। सिर से पैर तक देखता है। देखने का मतलब है जहां चित्त जाता है वहां प्राण जाता है। चित्त और प्राण दोनों साथ-साथ जाते हैं। चित्त जहां केन्द्रित होता है, प्राण को उसके साथ जाना ही होगा। प्राण चित्त का अनुचारी है, अनुगामी है। पूरे शरीर में प्राण की यात्रा होती है। जो संतुलन बिगड़ गया होता है वह संतुलन फिर ठीक हो जाता है। पूरा शरीर प्राण से भर जाता है। शरीर-प्रेक्षा का पहला उद्देश्य है-प्राण का संतुलन । उसकी निष्पत्ति है-प्राण का संतुलन। प्राण बिलकुल संतुलित हो जाता है। शरीर प्रेक्षा के द्वारा पूरे शरीर में व्याप्त चैतन्य को संतुलित किया जा सकता है। ज्ञान तंतुओं एवं कर्म तंतुओं की क्षमता बढ़ाई जा सकती है। परिणाम स्वरूप जहाँ चेतना पर आया हुआ आवरण दूर होता है वहाँ साथ ही प्राण शक्ति, ज्ञान-तंतुओं एवं कर्म-तंतुओं के पर्याप्त उपयोग, माँसपेशियों एवं रक्त संचार (blood circulation) की क्षमता में संतुलन के माध्यम से अभीष्ट मानसिक व शारीरिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। जिस व्यक्ति की प्रतिरोधात्मक शक्ति प्रबल होती है, वह बीमार नहीं होता। जिस व्यक्ति की रोग-प्रतिरोधात्मक शक्ति मजबूत है, उसे कीटाणु सताने का प्रयत्न करते हैं, पर सता नहीं पाते क्योंकि शरीर की प्रतिरक्षात्मक प्रणालियां सक्रिय हो जाती है। शरीर में सफेद रक्त कणिकाएं, और अन्य रक्षात्मक पदार्थ उत्पन्न करने की शक्ति बढ़ जाती है। हम शरीर-प्रेक्षा के द्वारा रोग-प्रतिरोधक शक्ति को सक्षम बनाते हैं, उसकी एक मजबूत दीवार खड़ी करते हैं जिससे कि कोई आक्रमण सफल न हो पाये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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